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________________ दृढ़प्रहारी मुनि द्वारा समभाव से उपसगं सहन 1 I देता है, वैसे ही उस क्रूर ने उस गर्भवती स्त्री पर हमला करके तलवार से उसके दो टुकडे कर डाले । उसके गर्भ में जो बालक था, उसके अंग के भी टुकड़े-टुकड़े हो गए। बेल के पत्तों की तरह थर-थर कांपते, तड़फड़ाते और छटपटाते हुए उस बालक को देख कर पत्थर से हृदय में भी करुणा के अंकूर फूटने लगे, ऐसा अत्यन्त करुण दृश्य था। ठीक उसी समय ब्राह्मण के पुत्र जोर-जोर से करुण स्वर से "हाय पिताजी, हाय पिताजी ! इस प्रकार विलाप करते हुए वहां आए । भूखे, नगघडंग, दुबले और शरीर पर मैल जमा होने से कालेकलूट बालकों को देखकर दृढ़प्रहारी पश्चात्ताप करने लगा और विचार करने लगा'हाय ! मैंने निर्दयी बन कर इस ब्राह्मण-दम्पती का वध कर डाला ! इन बेचारे अमागे बालकों का अब क्या होगा ? जैसे जलाशय में पानी के बिना मछलियाँ जीवित नहीं रह सकती हैं, वैसे ही ये बच्चे मातापिता के बिना कैसे जीवित रह सकेंगे ? ओफ ! यह क्रूर कर्म अब न मालूम मुझे किस दुर्गति में ले जायेगा ? इस पाप के फल से मुझे कौन बचाएगा ? अब मैं किसकी शरण लू ?" इस तरह चिन्तन करते-करते वैराग्यभाव जागृत हो गया । अतः गाँव में न जा कर गाँव के बाहर ही एक उद्यान में पहुँचा । वहाँ पापरूपी रोग के निवारण के औषध के समान एक साधु- मुनिराज को देखा । हत्यारे दृढ़प्रहारी ने उन्हें नमस्कार किया और कहा - 'भगवन ! मैं महापापी हूँ। इतना ही नहीं, मेरे साथ वार्तालाप करने वाला भी पापी हो जाता है। क्योंकि कीचड़ से लथपथ व्यक्ति को जो मनुष्य स्पर्श करता है, उसके भी कीचड़ लग जाती है । लोकमान्यता यह है कि बालक, स्त्री, ब्राह्मण और गाय इनमे से जो एक की भी हत्या करता है, वह अवश्य ही नरक का अधिकारी बनता है । मैंने तो निर्दय बन कर इन चारों की हत्या की है । प्रभो ! मुझ सरीखे निर्दय एवं पापी की रक्षा आप सरीखे पवित्र साधु ही कर सकते है । त्रपां जब बरसती है, तब विचार नहीं करनी कि यह उपजाऊ जमीन है या ऊषरभूमि ?" उस परितपावन मुनिवर ने उसे पाप से सर्वथा मुक्त होने के लिए तप संयममय साधुधर्म का उपदेश दिया । सुन कर अतीव जिज्ञासा से पापताप भय से छुटकारा पाने हेतु उसी कोई गर्मी से घबराया हुआ मनुष्य छाता धारण करता है। जब तक यह पाप मुझे याद आएगा, तब तक मैं भोजन जिस कुशस्थल गाव में उसने पहले आतंक मचाया था, ढ़प्रहारी मुनि उसी गांव के निकट पहुंच गये। गांव के और कहने लगे कि यह तो वही पापियों का शिरोमणि है, महापापी है, धूर्त ने अब कपट से साधुवेष पहन लिया है। मार भगाओ इसे ।" कई लोग कहने लगे- 'यह तो वही गौ, ब्राह्मण, बालक और स्त्री का हत्यारा है । ढोंगी कहीं का ! आने दो इसे मजा चखाएंगे !" यों कई दिनों तक लोग तरहतरह से उस महात्मा को कोसते, डांटते, फटकारते एवं निंदा करते रहे। जहां कहीं भी वह भिक्षा के लिए जाता था, वहीं पर लोग उसको उसी प्रकार ढेले से मारते थे, जैसे कुत्तों को ढेले से मारा जाता है । इस प्रकार दृढ़प्रहारी मुनि प्रतिदिन गाँव में भिक्षा आदि के लिए जब जाता तो ये निन्दामय बात सुनता रहता था, इस कारण उसे अपने पाप याद आ जाते थे और वह अपनी प्रतिज्ञानुसार किसी को प्रत्युत्तर न दे कर क्षमाभाव रखता था; आहार भी नहीं करता था । सच है साहसी आत्मा के लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है । किसी समय प्रातःकाल, किसी समय दोपहर को और किसी समय संध्या को जब भी उसे गाँव के लोग मिलते, उसके पूर्वपापों का स्मरण भोजन नहीं किया । लोग उस मुनि को ढेले, लाटी, मुष्टि इत्यादि से मारते थे, उस पर धूल उछालते थे; फिर भी वह उन सारे उपद्रवों को समभाव से सहन करता था और ऐसी भावना किया तरह साधुधमं अंगीकार किया, जिस तरह साथ ही यह अभिग्रह भी धारण किया कि नहीं करूंगा और सर्वथा क्षमा रखूंगा ।" बिहार करते हुए कर्मक्षय की इच्छा से महामना लोगों ने जब उसे देखा तो वे उसे पहचान गय दिला देते थे । अतः एक दिन भी उसने ४७
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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