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चित्त स्थिरता, इन्द्रियजय एवं इनका फल - तत्वज्ञान एवं उसकी पहिचान
मत्तो हस्ती यत्नात् निवार्यमाणोऽधिकां भवति यद्वत् । अनिवारितस्तु कामान्, लब्ध्वा शाम्यति मनस्तद्वत् ॥ २८ ॥
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अर्थ - मन भी जिन-जिस विषय में प्रवृत्ति करता हो, उससे उसे बलात् नहीं रोकना चाहिए क्योंकि बलात रोका गया मन उस ओर अधिक दौड़ने लगता है, और नहीं रोकने से वह शान्त हो जाता है जैसे मदोन्मत्त हाथो को प्रयत्नपूर्वक रोकने से वह अधिक उम्मत हो जाता है और उसे न रोका जाए को वह अपने इष्ट वित्रयों को प्राप्त कर शान्त हो जात है । इस प्रकार मन भी उसी तरह की विषय-प्राप्ति से शान्त हो जाता है । मन के स्थिर होने का उपाय हो श्लोकों द्वारा कहते हैं
यह यथा यत्र यतः, स्थिरोभवति योगिनश्चलचेतः । तह तथा तत्र तत, कथंचिदपि चालयेन्नैव । २९॥ अनया युक्त्याऽभ्यः सं विदधानस्यातिलोलमपि चेतः । अंगुल्यग्रस्थापितदण्ड इव स्थैर्यमाश्रयति ॥ ३०॥
अर्थ- जब, जिस प्रकार, जिस स्थान में और जिससे योगी का चंचल चित उसी जगह और उसी निमित्त से उसे तनिक भी चलायमान मनोनिरोध का अभ्यास करने से अतिचंचल मन भी अंगुली दंड के समान स्थिर हो जाता है । अब दो श्लोकों में इन्द्रियजय के उपाय बताते हैं---
निःसृत्यादौ दृष्टि: संलीना यत्र कुत्रचित् स्थाने । तवासाद्य स्थेयं शनं शनैवलयमाप्नोति ॥ ३१ ॥ सर्वत्रापि प्रसृता, प्रत्यग्भूता शनैः शनैह ष्टिः । परतत्त्वामलमुकुरे, निरीक्षते ह्यात्मनाऽऽत्मानम् ।। ३२ ।
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अर्थ- सर्वप्रथम दृष्टि बाहर निकल कर किसी भी स्थान में संलीन हो जाती है। फिर वहाँ स्थिरता प्राप्त करके धीरे-धीरे वहाँ से विलयन हो जाती है। अर्थात् पीछे हट जाती है। इस प्रकार सर्वत्र फैली हुई और वहाँ से धीरे-धीरे हटो हुई दृष्टि परमतत्वरूप स्वच्छदपंण में स्थिर हो कर आत्मा को देखती है ।
निश्चल रहे ; तब उसी प्रकार नहीं करना चाहिए । इम युक्ति के अग्रभाग पर स्थापित किए हुए
are तीन श्लोकों द्वारा मनोविजय की विधि कहते हैं
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औदासीन्यनिमग्नः प्रयत्न परिवजितः सततमात्मा । भावित परमानन्दः क्वचिदपि न मनो नियोजयति । २३ ॥ करणानि नाधितिष्ठन्त्युपेक्षित चित्तमात्मना जातु । ग्राह्ये ततो निज-निजे, करणान्यपि न प्रवर्तन्ते ॥ ३४ ॥ नात्मा प्रेरयति मनो, न मनः प्रेरयति यहि करणानि । उभयष्टं तह, स्वयमेव विनाशमाप्नोति ॥ ३५॥