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योगशास्त्र:दशमप्रकाश
इसका निचोड़ कहते हैं
अलक्ष्य-लक्ष्य-सम्बन्धात्, स्थूलात् सूक्मन्तियत् ।
सालम्बाच्च निरालम्ब, तत्ववित्त-मजसा ॥१॥
अर्थ-प्रथम पिण्डस्थ, पदस्थ आदि लक्ष्य वाले ध्यान द्वारा निरालम्बनरूप अलक्य ध्यान में प्रवेश करना चाहिए। स्यूल ध्येयों का ग्रहण कर क्रमशः अनाहत कला आदि सूक्ष्म, सक्मतर ध्येयों का चिन्तन करना चाहिए और रूपस्थ आदि सालम्बन ध्येयों से सिद्धपरमात्म-स्वरूप निरालम्बन ध्येय में जाना चाहिए। इस क्रम से ध्यान का अभ्यास किया जाए तो तस्वम योगी अल्प समय में ही तत्त्व की प्राप्ति कर लेता है। पिंडस्थ बादि चारों ध्यानों का उपसंहार करते हैं
एवं चतुर्विध-ध्यानामृतमग्नं मुनेर्मनः।
साक्षारतजगत्तत्त्वं, विधत्ते शुद्धिमात्मनः ॥६ । अर्थ-इस प्रकार पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, और रूपातीत इन चारों प्रकार के ध्यानामृत में निमग्न मुनि का मन जगत् के तत्वों का साक्षात्कार करके अनुभवज्ञान प्राप्त कर आत्मा को वियुति कर लेता है। पिण्डस्य आदि क्रम से चारों ध्यान बता कर उसी ध्यान के प्रकारान्तर से भेद बताते हैं
आज्ञापायविपाकानां, संस्थानस्य च चिन्तनात् ।
इत्यं वा ध्येयमेवेन, धर्मध्यानं चतुर्विधम् ॥७॥ अर्थ-१. माता-विषय, २. अपाय-विषय, ३. विपाक-विचय, और ४. संस्थानविषय का चिन्तन करने से ध्येय के भेव से धर्मध्यान के चार मेव होते हैं।
प्रथम बामा-विषय ध्यान के सम्बन्ध में कहते हैं
आज्ञां यत्र पुरस्कृत्य (समाश्रित्य) सर्वज्ञानामबाधिताम् ।
तत्त्वतश्चिन्तयेदान्, तबामा-ध्यानमुच्यते ॥८॥
अर्थ-सर्वज्ञों प्रामाणिक माप्तपुरुषों को, किसी भी तर्क से अबाधित, पूर्वापर बचनों में परस्पर अविरुख, अन्य किसी भी दर्शन से अफाटच, माज्ञा अति-सर्वप्ररूपित द्वादशांगोल्प प्रवचन, को सामने रखकर जीवादि पदार्थों का तत्त्वतः (पार्ष) चिन्तन करना, भानाध्यान कहलाता है। मामा का अबाधित्व किस तरह है? उसका विचार करते हैं
सर्वज्ञ वचनं सूक्ष्म, हन्यते यन्त्र हेतुभिः । त
, न मृषाभाषिणो जिनाः ॥६॥ अर्ण-सर्वज्ञ भगवान् के बचन ऐसे सम्मतास्पर्शी होते हैं कि किसी हेतु या युक्ति सेरित नहीं हो सकते । अतः सर्वज्ञ भगवान् के मानारूपी पचन स्वीकार करने चाहिए। पयोंकि सर्वनामगवान् कमी मसत्य वचन नहीं कहते ।