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मायावीज ही एवं वीं विधा के ध्यान की विधि और उसका फल
५७७ (२)क, ख, ग, घ, (३)च, छ, जसम3; (४)2, 3; (५)त,
म ध ,म: (६) प, फ, ब, भ, म; (७) य, र, ल,व; () श, ष, सह; को क्रमशः स्थापना करना तथा 'ॐ नमो अरिहंता' इन आठ अक्षरों में से एक-एक अक्षर को एक-एक पंबडी पर स्थापित करना। उस कमल को केसरा के चारों तरफ के भागों में ब मा आदि सोलह स्वर स्थापित करना और मध्य की कणिका को चन्द्रबिम्ब से गिरते हुए अमृत के बिन्दुओं से विभूषित करना। उसके बाद कणिका में मुख से संचार करते हुए प्रमामण्डल में स्थित और चन्द्रमा के समान उज्ज्वल 'हो' मायाबीज का चिन्तन करना। तवनन्तर प्रत्येक पंखुड़ी पर भ्रमण करते हुए, आकाशतल में विचरण करते हुए, मन की मलिनता को नष्ट करते हुए, अमृतरस बहाते हुए, तालुरन्ध्र से जाते हुए भ्रकुटि के मध्य में सुशोभित तीन लोकों में अचिन्त्य महिमासम्पन, मानो अद्भुत ज्योतिर्मय इस पवित्र मन्त्र का एकाग्रचित्त से ध्यान करने से मन और बचन की मलीनता नष्ट हो जाती है और धूतज्ञान प्रकट होता है। इस तरह निरन्तर छह महीने तक अभ्यास करने से साधक का मन जब स्थिर हो जाता है, तब वह अपने मुखकमल से निकलती हुई धूम-शिक्षा देखता है। एक वर्ष तक ध्यान करने वाला साधक ज्वाला देखता है और उसके बाद विशेष संवेग को वृद्धि होने पर सर्वज्ञ का मुखकमल देखने में समर्थ होता है। इससे आगे बढ़कर कल्याणमय माहात्म्य से देदीप्यमान, समस्त अतिशय से सम्पन्न और प्रभामण्डल में स्थित सर्वज को प्रत्यक्षसा देखने लगता है। बाद में सर्व. के स्वरूप में मन स्थिर करके वह आत्मा संसार-अटवी को पार कर सिद्धि मंदिर में विराजमान हो जाता है। यहाँ तक मायावीज ह्रीं का ध्यान बतलाया । अब वी विद्या के सम्बन्ध में कहते हैं
शशिबिम्बादिवोद्भूतां, सवन्तीममृतं सदा ।
विद्यां 'क्वी' इति भालस्थां ध्यायेत्कल्याणकारणम् ॥१७॥ ___ अर्थ--मानो चन्द्र के बिम्ब से समुत्पन्न हुई हो, ऐसी सदा उज्वल अमृतवर्षिणी 'वी' नाम की विद्या को अपने ललाट में स्थापन करके साधक को कल्याण के लिए उसका ध्यान करना चाहिए। तथा__ . क्षीराम्भोविनिर्यान्ती, प्लावयन्ती सुधाम्बुभिः ।
भाले शशिकला ध्यायेत्, सि िसोपानपातम् ॥१८॥ . अर्थ-क्षीरसमुद्र से निकलती हुई एवं सुधा-समान जल से सारे लोक को प्लावित करती हुई सिविरूपी महल के सोपानों की पंक्ति के समान चन्द्रकला का ललाट में ध्यान करना चाहिए। इस ध्यान का फल कहते है
अस्याः स्मरणमात्रेण, वृदय भवानबन्धनः ।
प्रयाति परमान. कारणं पवमव्ययम् ॥१९॥ अर्थ-इस चन्द्रकला का स्मरण करने मात्र से साधक के संसार का कारणस्प बन्न