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________________ ध्येयतत्त्व के भेद एवं पंचपरमेष्ठीमंत्र का ध्यान ५७३ अर्थ - तथा हृदयकमल के मध्य में स्थित (वचन- विलासस्वरूप) शब्दब्रह्म को उत्पत्ति के एकमात्र कारण, स्वर और व्यञ्जनों से युक्त पंचपरमेष्ठी के वाचक एवं मस्तक में स्थित चन्द्रकला से निकलते हुए अमृतरस से तरबतर महामन्त्र ॐकार (प्रणव) का कुंभक (श्वासोच्छ्वास को रोक) करके ध्यान करना चाहिए। ध्येयतत्व के दूसरे भेद कहते हैं पीत स्तम्भेऽरुण वश्ये, क्षोभणे विद्र मप्रभम् । कृष्णं विद्व ेषणे ध्यायेत् कर्मघाते शशिप्रभम् ॥ २१ ॥ अर्थ- स्तंभन कार्य करने में पोले ॐकार का, वशीकरण में लाल वर्ण का, क्षोभणकार्य में मूंगे के रंग का, विद्वेषण-कार्य में काले वर्ण का और कर्मों का नाश करने के लिए चन्द्रमा के समान उज्ज्वल श्वेत वर्ण के आकार का ध्यान करना चाहिए। भावार्थ - यद्यपि कर्मक्षय के अभिलापी को चन्द्रकान्ति के समान उज्ज्वल ॐ (प्रणव) का ध्यान करना ही योग्य है, तथापि किसी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप विभिन्न परिस्थितियों में पीत आदि का ध्यान भी उपकारी हो सकता है । इसलिए यहाँ 'ॐ' के ध्यान का विधान किया है । अन्य प्रकार से पदमयी देवता की ध्यानविधि कहते हैं तथा पुण्यतमं मन्त्रं जगत् त्रितयपावनम् । योगी पंचपरमेष्ठि-नमस्कारं विचिन्तयेत् ॥ ३२॥ अर्थ- -तथा तीन जगत् को पवित्र करने वाले महान् पुण्यतम पंचपरमेष्ठि-नमस्कार मंत्र का ध्यान ही विशेषरूप से योगी को करना चाहिए। वह इस प्रकार किया जा सकता है अष्टपत्रे सिताम्भोजे, कणिकायां कृतस्थितिम् । आद्य सप्ताक्षर मंत्र, पवित्रं चिन्तयेत् ततः ॥३३॥ अर्थ - आठ पखुड़ी वाले सफेद कमल का चिन्तन करके उसकी कणिका में स्थित सात अक्षर वाले पवित्र 'नमो अरिहंताणं' मन्त्र का चिन्तन करना चाहिए । सिद्धादिकचतुष्कं च, दिक्पत्रेषु यथाक्रमम् । चूला - पादचतुष्कं च, विदिक्पत्रेषु चिन्तयेत् ॥ ३४॥ अर्थ- फिर सिद्धाविक चार मंत्रपदों का अनुक्रम से चार दिशाओं की पड़ियों में और चूलिकाओं के चार पदों का विदिशा को पंखुड़ियों में चिन्तन करना चाहिए। भावार्थ- पूर्वदिशा में 'नमो सिद्धाणं', दक्षिण दिशा में 'नमो आमरियानं', पश्चिम दिशा में 'नमो उवज्झायाणं' और उत्तरदिशा में नमो लोए सव्वसाहूणं' का चिन्तन करना चाहिए तथा विदिशा की चार पड़ियों में अग्निकोण में 'एसो पंच नमुक्कारों', नैर्ऋत्यकोण में 'सव्वपावप्पणासनों', वायव्यकोण में 'मंगलानं च सब्बेस' और ईशानकोण में 'पढमं हवद्द मंगल' ; इम प्रकार पंचपरमेष्ठिनमस्कारमन्त्र का ध्यान करना चाहिए । अब मन्त्र के चिन्तन का फल बताते हैं
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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