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प्राणायाम : प्रकार, लाभ, प्राणवायु के भेद प्राणायाम में ऐसा नियम नहीं है, बल्कि नासिका आदि निकलने के द्वारों से इसमें पवन रोका जाता है।
आपीयोध्वं यदुत्कृष्य हृदयादिषु धारणम् ।
उत्तरः स समाख्यातो, विपरीतस्ततोऽधरः ॥९॥ अर्थ-बाहर के वायु का पान करके, और उसे ऊपर खींच कर हृदय आदि में स्थापित करना, 'उत्तर-प्राणायाम' कहलाता है; इसके विपरीत वायु उपर से नीचे की ओर ले जाना 'अघर-प्राणायाम' कहलाता है।
व्याख्या-यहाँ शंका करते हैं कि 'रेचक आदि में प्राणायाम कैसे हो सकता है ? क्योंकि प्राणायाम मे तो श्वास-प्रश्वास की गति को रोकना होता है. इसका उत्तर देते हैं कि 'रेचक में उदर के वायू को खींच कर नासिका के द्वार पर रोकना होता है; अन्दर जाने नही दिया जाता। इस दृष्टि से यह श्वास-प्रश्वास की गति विच्छेदरूप प्राणायाम कहलाता है, तथा पूरक में बाहर के वायु को धीरे-धीरे ग्रहण करके उदर में धारण करना होता है। इसमें भी श्वास-प्रश्वास रोकना या लेना नही होता है; अर्थात् गति-विच्छेदरूप प्राणायाम होता है, इसी तरह कुभक आदि में भी जान लेना।' रेचक आदि के फल कहते हैं
रेचनादुदरव्याधेः, कफस्य च परिक्षयः । पुष्टिः पूरकयोगेन, व्याधिघातश्च जायते ॥१०॥ विकसत्याशु हृत्पनं ग्रन्थिरतविभिद्यते । बलस्थर्यविवृद्धिश्च, कुम्भकाद् भवति स्फुटम् ॥११॥ प्रत्याहाराद् बलं कान्तिः, दोषशान्तिश्च शान्ततः ।
उत्तराधरसेवातः, स्थिरता कुम्भस्य तु ॥१२॥ अर्थ-रेचक-प्राणायाम से उपर की व्याधि का और कफ का विनाश होता है। पूरक प्राणायाम से शरीर पुष्ट होता है तथा सर्वव्याधियाँ नष्ट होती हैं। कुम्भक प्राणायाम करने से तत्काल हत्य-कमल विकसित होता है, और अन्दर की प्रन्थियों का भेदन होता है, बल की वृद्धि होती है और वायु को स्थिरता होती है। प्रत्याहार-प्राणायाम से शरीर में शक्ति और कान्ति उत्पन्न होती है, शान्त नामक प्राणायाम से वात-पित्त-कफरूप त्रिदोष या सनिपात (ज्वर) को शान्ति होती है, उत्तर और अधर प्राणायाम के सेवन से कुम्भक की स्थिरता होती है।
इन प्राणायामों से केवल प्राण पर विजय होता है, इतना ही नहीं है, बल्कि पंचवायुओं पर विजय करने में भी ये कारणभूत हैं । इसी बात को कहते हैं
प्राणमपान-समानावदानं व्यानमेव च।
प्राणायामर्जयेत् स्थान-वर्ण-क्रियाऽर्थवीजवित् ।।१३॥ अर्थ-प्राण, अपान, समान, उदान और ध्यान यह पांच प्रकार का पवन-वायु है,