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बोगशास्त्र : चतुर्व प्रकार मात्मा को अच्छी मानने वाले, तथा जैसे मुद्गलिक पत्थर को पुष्करावर्त मेष भी पिघला नहीं सकता, पैसे क्रूर कर्म करने वाले, देवगुरु की निन्दा करने वाले, ओर अपनी आत्मप्रशंसा करने वाले को उपदेश दे कर सन्मार्ग में लाना अशक्य है, इसलिए उसके प्रति उपेक्षा रखना माध्यस्थ्यभावना है।"
जो यह कहा गया था कि चार भावनाएं धर्मध्यान को मदद देने वाली हैं. उसी का विवेचन करते हैं
आत्मानं भावयन्नाभिर्भावनाभिर्महामतिः ।
त्रुटितामपि संधत्ते विशुद्धां ध्यानसन्ततिम् ॥१२२॥ अर्थ-मैत्री आदि चार भावनाओं से अपनी आत्मा को भावित करने वाला महाबुद्धिशाली योगी टूटी हुई विशुद्ध ध्यान-श्रेणी को फिर से जोड़ लेता है।" ध्यान करने के लिए किस प्रकार के स्थान की जरूरत है, उसे कहते हैं
तीर्थ वा स्वस्थताहेतु, यत्तद् वा ध्यानसिद्धये ।
कृतासनजयो योगी, विविक्त स्थानमाश्रयेत् ॥१२३॥ अर्थ-आसनों का अभ्यास कर लेने वाला योगी ध्यान की सिद्धि के लिए तीर्थकरों को जन्म, दीक्षा, कंवल्य, अथवा निर्वाणभूमि में जाए। यदि वहाँ जाने की सुविधा न हो तो किसी एकान्त-स्थान का आश्रय ले।
व्याख्या-श्री तीर्थकर भगवान् की जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान, एवं निर्वाणकल्याणक-भूमि में ध्यान करना चाहिए, ऐसे स्थान के अभाव में मन की शान्ति के लिए पर्वत की गुफा आदि या ध्यान करने योग्य स्त्री-पशु-नपुंसकरहित स्थान पसंद करना चाहिए। कहा भी है कि "साधुओं को हमेशा युवति, नपुंसक, कुशील मनुष्य आदि के संमर्ग से रहित एकान्त स्थान का आश्रय लेना चाहिए, और विशेषरूप से ध्यानकाल में तो ऐसा ही स्थान चुनना चाहिए । जिन्होंने अपना योग स्थिर कर लिया हो
और जिनका मन ध्यान में निश्चल है ऐसे मुनियों के लिए वसति वाले गांव में या शून्य अरण्य में कोई अन्तर नहीं है। इसलिए ध्यानकर्ता को ऐसे स्थान में ध्यान करना चाहिए ; जहाँ चित्त में समाधि रहे, मन, वचन और काया के योग की एकाग्रता रहे, तथा जो स्थान भूतों और जीवों के उपद्रव से रहित हो।" 'स्थान' शब्द से यहाँ उपलक्षण से काल भी जानना । कहा है कि जिस काल में उत्तम योग-समाधि प्राप्त होती हो, वह काल ध्यान के लिए उत्तम है। ध्यान करने वाले के लिए दिन या रात्रि का कोई नियमित काल नहीं माना गया है। निष्कर्ष यह है कि ध्यान की सिद्धि के लिए विशिष्ट बासनों का अभ्यासी योगी योग्य विविक्त, शान्त व एकान्त स्थान का आश्रय ले। योगी किस प्रकार का होता है? इसका लक्षण आगे बतायेंगे । बब बासनों का निर्देश करते हैं
पर्यक-वीर - वज्राब्ज-भव-दण्डासनानि च । उत्कटिका-गोबोहिका-कायोत्सर्गस्तथाऽऽसनम्॥१२४॥