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योगशास्त्र : चतुर्ष प्रकार
इसी बात को कहते हैं
मोक्षः कर्मक्षयादेव, स चात्मज्ञानतो भवेत् ।
ध्यानसाध्यं मतं तच्च, तद्ध्यानं हितमात्मनः ॥११३। अर्थ-कर्मों के भय से मोक्ष होता है, कर्ममय आत्मज्ञान से होता है। इस बात में विवाद नहीं है । आत्मज्ञान ध्यान से सिद्ध होता है। परपदार्थ के योग का त्याग और मात्मस्वरूपयोग में रमण, यह दोनों ध्यान से सिद्ध हो सकते हैं। इसलिए ध्यान आत्मा के लिए हितकारी माना जाता है।
यहाँ शंका करते हैं कि पहले तो अर्थ की प्राप्ति के लिए और अनर्थपरिहार के लिए साम्य को बताया, अब ध्यान को आपने आत्महित करने वाला कहा, तो इन दोनों बातों में मुख्यता किसकी मानी जाय ? उत्तर देते हैं कि दोनों की प्रधानता है ; इन दोनों में अन्तर नहीं है । उसी को कहते हैं
न साम्येन विना ध्यानं, न ध्यानेन विना च तत् ।
निष्कम्पं जायते तस्माद, द्वयमन्योऽन्यकारणम् ॥११४॥ अर्थ- साम्य के बिना ध्यान नहीं होता, और ध्यान के बिना साम्य सिद्ध नहीं होता। दोनों के होने पर ही निष्कम्पता आती है, इसीलिए दोनों एक दूसरे के कारण हैं।
भावार्थ-ऐसा नहीं है कि साम्य के बिना ध्यान नहीं हो सकता, ध्यान तो साम्य के बिना हो सकता है, मगर स्थिरतायुक्त नहीं होता। इसलिए इनमें परस्पराश्रय-दोषों का अभाव होने से ये दोनों एक दूसरे के कारणरूप हैं । साम्य की व्याख्या पहले कर चुके हैं । अब ध्यान के स्वरूप को व्याख्या करते हैं
मुहूर्तान्तर्मनःस्थैर्य, ध्यानं छद्मस्थयोगिनाम् ।
धयं शुक्लं च तद्धा ,योगरोधस्त्वयोगिनाम् ॥११॥ अर्थ-छप्रस्थ-योगियों का अन्तःमुहर्तकाल तक ही मन का स्थिर रहना ध्यान है। वह ध्यान दो प्रकार का है, प्रथम धर्मध्यान और दूसरा शुक्लध्यान । अयोगियों के तो योग का निरोध होता ही है।
व्याख्या- ध्यान करने वाले दो प्रकार के होते हैं - सयोगी और अयोगी । सयोगीध्याता भी दो प्रकार के हैं, छद्मस्थ और केवली। इनमें छदमस्थ योगी का ध्यान एक आलम्बन में ज्यादा से ज्यादा अन्तर्मुहूर्त-(४८ मिनिट पर्यन्त) तक मन की स्थिरता-(एकाग्रता) पूर्वक हो सकता है । वह ध्यान छमस्थ योगी को दो प्रकार का होता है-धर्मध्यान और शुक्लध्यान । वह धर्मध्यान दस प्रकार के धर्मों से युक्त, अथवा दशविध धर्मों से प्राप्त करने योग्य है, और शुक्लध्यान समग्र कर्म-मल को क्षय करने वाला होने से शुक्ल-उज्ज्वल पवित्र निर्मल है, अथवा शुक्ल का दूसरा अर्थ होता है-शुगं दु:खं पलमयति =नश्यतीति शुक्लम् । अर्थात् शुग पानी दु:ख के कारणभूत आठ प्रकार के कर्मों का जो नाश करता है, वह शुक्लध्यान है । सयोगी केवली को तो मन, वचन और काया के योग का निरोध करना-निग्रह