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धर्म का प्रभाव और फल
४८७ सम्बन्ध में व्याख्या करने वाला होने से तथा अनुप्रेक्षा के निमित्त से भगवान् की स्तुति करने वाला होने से यह जो कुछ कहा है, वह वास्तविक है।" अब प्रसंगवश धर्म का प्रभाव बताते हैं---
धर्मप्रभावतः कल्प माद्या बदतोप्सितम् ।
गोचरेऽपि न ते यत्स्युर्धर्माधिष्ठितात्मनाम् ॥९४॥ अर्थ -धर्म के प्रभाव से कल्पवृक्ष, चिन्तामणिरत्न आदि (सुषमाकाल में वनस्पति और पाषाणरूप होने पर भी) धर्मात्मा जीवों को अभीष्ट फल देते हैं। वे ही कल्पवृक्ष मावि दुःषमकाल आदि में दृष्टिगोचर भी नहीं होते, फिर भी ईष्ट (मर्थप्राप्तिरूप) फल प्रदान
और भी कहा है
अपारे व्यसनाम्भोधौ, पतन्तं पाति देहिनम् ।
सदा सविधवक-बन्धुर्धोत. ॥९॥ अर्थ-धर्म अपार दुःख-समुद्र में गिरते हुए मनुष्य को बचाता है, तथा सदैव निकट रहने वाला एकमात्र बन्ध है । वही अतिवत्सल है। यहाँ अनर्थ-परिहाररूप फल बतलाया है । तथा
आप्लावयति नाम्मोधिराश्वासयति चाम्बुवः ।
यन्महीं स प्रभावोऽयं, ध्रुवं धर्मस्य केवलः ॥९॥ अर्थ-समुद्र इस पृथ्वी को डूबा नहीं देता, तथा बावल पृथ्वी पर जो उपकार करता है; वह निसिंदेह एकमात्र धर्म का ही प्रभाव है। इसमें अनर्थ का परिहार और अर्थप्राप्तिफल कहा है।' अब साधारणधर्म का साधारण फल कहते हैं
न ज्वलत्यनलस्तिर्यग् यदूवं वाति नानिलः।
आचन्त्यमा तत्र धर्म एव निबन्धनम् ॥१७॥ अर्थ-जगत् में अग्नि को ज्वालाएं यदि तिरछो जाती तो वह भस्म हो जाता और वायु ऊर्ध्वगति करता तो जीवों का जीना कठिन हो जाता। किन्तु ऐसा नहीं होता, इसका कारण धर्म का अचिन्त्य प्रभाव ही है।
मिथ्यादृष्टि भी कहते हैं कि 'अग्नि की ज्वाला ऊपर को उठ कर जलाती है और वायु तिरछी गति करता है, उसमें कोई अदृष्ट ही कारण है।' तथा
नं सलमा निराधारा विश्वाधारा वसुन्धरा।
यच्चावतिष्ठते तत्र, धमा त्यस कारणम् ॥६॥ अर्थ-किसी लवलम्बन के बिना, शेषनाग, कछमा, बराह, हाची माविमाधार के