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बाभ्यन्तरतप के ६ भेदों की व्याख्या
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(२) यावृत्य-निग्रन्थ-प्रवचन या आगम में कथित क्रियाओं के अनुष्ठान में प्रवृत्ति करना या उसका भाव वयावृत्य है । व्याधि, परिषह, मिथ्यात्व आदि का उपद्रव होने पर उसका प्रतीकार करना तथा बाह्यद्रव्य के अभाव में अपनी काया से अपने पूज्यपुरुषो या रुग्ण आदि साधुओं या संघ आदि की अनुरूप परिचर्या, उपचार या सेवाशुश्रूषा करना भी वयावृत्य है। आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी नवदीक्षित, रुग्ण-साधु, समानधर्मी, कुल गण और संघ ये १० वयावृत्य के उनम पात्र हैं। इनकी व्याम्या इस प्रकार है-आचार्य-जो स्वयं पांच आचारों का विशुद्ध पालन करे एवं दूसरों से पालन करावे; अथवा जिनकी आचर्या-सेवा की जाए, वह आचार्य है। इसके पांच प्रकार हैं--(१) प्रव्राजकाचार्य, (२) दिगाचार्य, (३) उद्देशकाचार्य, (४) समुद्देशकाचार्य और (३) वाचनाचार्य । सामायिक, व्रतादि का आरोपण करने वाले प्रव्राजकाचार्य कहलाते हैं सचित्त अत्रित्त, मिश्र वस्तु की अनुना देन वाले दिगाचार्य होते है। योगादि क्रिया कराने वाले तथा श्रतज्ञान का प्र4म उद्देश करने वाले उद्दशकाचाय होत हैं । उद्देश करने वाले गुरु के अभाव में उसी श्रुत का समूह श और अनुना की विधि करने वाले ममुद्देश कानुज्ञाचार्य होते हैं । परम्प गगत उत्सर्ग-अपवादरूप अर्थ की जो काम्या करे, प्रवचन का अथ बना कर जो उपकार करें ; अश, निपद्या आदि की जो अनुज्ञा दें, आम्नान के अर्थ को बनावें, आचारविपया या स्वाध्यायविषयक कथन करें ; वे वाचनाचार्य कहलाते हैं। इस तर. पाँच प्रकार के आचार्य होते हैं : इन आचार्यों की अनुज्ञा से साधुसाध्वी विनयपूर्वक निमके पाम गान्ध का अध्ययन-स्वाध्याय करें वह उपाध्याय है। स्थविर का अर्थ सामान्यतया वृद्ध साधु होता । इन पान भेद है-श्र स्थविर, दीक्षा स्थविर और वयःस्थविर । समवायांगसूत्र तक का अध्ययन कर लिया हो, वह थ तरथविर, जिनकी मुनिदीक्षा को २० वर्ष हो गए हों, वह दीक्षास्थविर और जो माठ वर्ष या इससे अधिक उम्र का हो गया हो, वह वय.स्थविर कहलाता है । चार उपवास से ले कर कुछ कम ६ माम तक की तपस्या करने वाला तपस्वी कहलाता है। नई दीक्षा लेने वाला, शिक्षा दने के योग्य साधु शैक्ष्य या नवदीक्षित कहलाता है । रोगादि से निर्बल क्लिष्ट शरीर वाना मुनि ग्लानसाधु हाना है । पारह प्रकार के संभाग (व्यवहार) के लेने-देने वाले, व्यवहार वाले समानधर्मी या सामिक कहलाते है। एक हो जाति या समान समाचारी (आचारसहिता) वाले साधुसाध्वियों के गच्छों के समूह को ममुदाय तथा चन्द्रादि नाम वाले ममूह को फुल, एक आचार्य की निश्राय में रहने वाले साधु-गमुदाय के गज्छ एवं कुल के समूह को गण (जैसे कोटिक आदि गण) तथा साधु-माध्वी-श्रावक-श्राविकाओ का ननुर्विध समुदाय संघ कहलाता है। इन आचार्य से ले कर संघ आदि की, आहार, पानी, वस्त्र, पात्र, उपाश्रम, तखत, चीकी, पट्टा, शय्या संस्तारक, आदि धर्म-साधन द कर या औषध भिक्षा आदि दे कर संवाभक्ति करता, राग आदि संकट या कोई उपद्रव आने पर उनका यावत्य करना, अटवी पार करने में सहयोग देना. उपसर्ग आदि के मौके पर उनकी सारसंभाल करना इत्यादि वैयावृत्य के रूप है।
(३) स्वाध्याय- अकाल के समय को टाल कर, स्वाध्यायकाल में मर्यादापूर्वक स्वाध्याय करना, यानी पोरसी आदि की अपेक्षा से सूत्रादि का अध्ययन करना स्वाध्याय है। स्वाध्याय पाच प्रकार का है-वाचना, पृच्छना, परावर्तन (पर्यटना), अनुप्रेक्षा और धर्मशा । शिष्यों को स्त्रादि पढ़ाना - वाचना है। सूत्र के अर्थ में सन्देह होने पर उसके निवारणार्थ, या अर्यनिश्चय करने के लिए पूछना-पृच्छना है ; सूत्र और अर्थ का मन में चिन्तन-अनुप्रेक्षा है; शुद्ध उच्चारणसहित बार-बार दोहराना-परावर्तन है; धर्मोपदेश देना, व्याख्या करना, अनुयोगपूर्वक वर्णन करना धर्मकथा है ।