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योगशास्त्र : चतुर्व प्रकार बुद्धि रखने वाले भव्यात्मन् ! तुम इस बात का विवेक करो और मिष्याभावना का परित्याग कर ममत्त्वछेदिनी अन्यत्वभावना का लगातार अबलम्बन लो।' इस प्रकार अन्यत्त्वभावना पूर्ण हुई। अब अशुचिभावना के सम्बन्ध में कहते हैं
रसासृग्मांसमेदोऽस्थिमज्जा! काजवर्चसाम् ।
अशुचीनां पदं कायः, शुचित्वं तस्य तत् कुतः॥७२॥ मर्ष-माहार करने के बाद उसका रस बनता है, रस से रक्त, रक्त से मांस, मांस से चर्बो, चर्बी से मेद और मेव से हरसी, हड्डी से मज्जा, मज्जा से बीय और वीर्य से बांतें
और आंतों से विष्ठा बनती है। इस प्रकार यह शरीर अशुचि (गंदे) पदार्थों का भाजन है, तब फिर यह काया पवित्र कहाँ से हो सकती है ? जो काया को पवित्र मानते हैं, उन्हें उपालम्भ देते हुए कहते हैं
नवस्रोतः श्रवदविनरसनिः चन्वपिच्छिल ।
देहेऽपि शौचसंकल्पो म.न्मोहविज़म्भितम् ॥७३॥ अर्थ-दो नेत्र, दो कान, दो नाक के नथुने, मुख, गुदा और लिग ; ये शरीर में नौ द्वार हैं, इनमें से निरन्तर रती रहती गंदगी (बदबूदार घिनौनी चीज) से बेह लिपटा रहता है। ऐसे घिनौने शरीर के बारे में भी पवित्रता की कल्पना करना, महामोह को ही विडम्बना है।
___ इसके सम्बन्ध में अंकित आन्तरपलोकों का भावार्य प्रस्तुत कर रहे हैं- "वीर्य और रज से उत्पन्न होने वाला, मल के रस से बढ़ने वाला और गर्म में जरायु (पतली चमड़ी की मिल्ली) से ढका हुमा यह शरीर कैसे पवित्र हो सकता है ? माता के खाये हुए अन्न, जल, पेयपदार्थ से उत्पन्न, रसनाड़ी द्वारा बह कर आये हुए उस रस को पी-पी कर संबंधित ; इस शरीर को कौन पवित्र मानेगा? अशुचिदोष एवं धातुओं के मल से व्याप्त, कृमि, कैंचुमा आदि के स्थानरूप से रोगरूपी सर्प जिसके चारों ओर लिपटे हुए हैं, ऐसे शरीर को कौन पवित्र कह सकता है ? विलेपन करने के लिए अगर, कपूर, चन्दन, कक्कोल, कस्तूरी आदि सुगन्धित पदार्थ घिस कर लगाये हों, वे भी कुछ देर बाद मलिन हो जाते हैं, तब इस शरीर में शुद्धता कैसे हो सकती है ? सुगन्धित ताम्बूल (पान) मुंह में दबा कर रात को सो जाए और प्रातःकाल जागने के बाद सूघे तो मुंह में से बदबू निकलती है, तो फिर इस शरीर को कैसे शुद्ध माना जाए ? स्वभाव से सुगन्धित गन्ध, धूप, फूलों की माला आदि चीजें भी शरीर के सम्पर्क से दुर्गन्धमय बन जाती हैं, तब इस शरीर को पवित्र कैसे कहा जाय? शराब के गदे घड़े के समान इस शरीर पर सैकड़ों बार तेलमालिश करने या विलेपन करने पर अथवा करोड़ों बड़ों से इसे धोने पर भी यह पवित्र नहीं हो सकता। जो लोग कहते हैं कि मिट्टी, पानी, हवा, सूर्यकिरण आदि से शरीर की शदि हो जाती है, उन्हें लकीर के फकीर समन्मने चाहिए। यह बात तो ठोक-पीट कर वैद्यराज बनाने के समान है। मद, अभिमान और काम के दोषों को दूर करने वाला सापक शरीर के प्रति अशुचिभावना द्वारा ही निर्ममस्व के महाभार को उठाने में समर्थ हो सकता है। अधिक क्या लिखें। बस, यही अशुचिभावना है।