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________________ पांचों इन्द्रियों के वशीभूत प्राणियों की दशा ___ अर्थ-हथिनी के स्पर्श-सुख का स्वाद लेने के लिए सूफैलाता हुआ हाथी क्षणभर में खंभे के बन्धन में पड़कर क्लेश पाता हैं । अगाध जल में रहने वाली मछली जाल में लगे हुए लोहे के कांटे पर मांस का टुकड़ा खाने के लिए ज्यों ही आती है, त्यों ही निःसंदेह वह बेचारी मच्छीमार के हाथ में आ जाती है । मदोन्मत्त हाथी के गंडस्थल पर गंध में आसक्त हो कर भौंरा बैठता है, परन्तु उसके कान को फटकार से मृत्यु का शिकार हो जाता है। सोने के तेज के समान चमकती हुई दीपक की लौ के प्रकाश को देख कर पतंगा मुग्ध हो जाता है और दीपक पर टूट पड़ता है ; जिससे वह मौत के मुंह में चला जाता है। मनोहर गीत सुनने में तन्मय बना हुआ हिरन कान तक खींचे हुए शिकारी के बाण से विध जाता है। मृत्यु को प्राप्त करता है।" इमका उपसंहार करते हुए कहते है-- एवं विषय एकैकः, पञ्चत्वाय निषेवितः। कथं हि युगपत् पञ्च, पञ्चत्वाय भवन्ति न?॥३३॥ अर्थ -इस प्रकार स्पर्शन, रसना, नासिका, चक्ष और कर्ण इन पांचों इन्द्रियों में से एक-एक इन्द्रिय का विषय भी सेवन करने पर मृत्यु का कारण हो जाता है तो एक साथ पांचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन करने से मृत्यु का कारण क्यों नहीं होगा ? अवश्यमेव होगा। भावार्थ-कहा है कि एक में आसक्त होन मे पांचों इन्द्रियों का नाश कराता है तो एक साथ जो पांचों इन्द्रियों के विषयो में मूढ़ बन कर आसक्त होता है, वह तो मर कर भस्मीभूत ही हो जाता है।' इन्द्रियों के दोष कह कर अब उन पर विजय प्राप्त करने का उपदेश देते हैं तदिन्द्रियजयं कुर्यात् मनः शुद्ध या महामतिः । यां विना यम-नियमः कायाक्लेशो वृथा नृणाम् ॥३४॥ अर्थ-इसलिए महाबुद्धिमान साधक मन को शुद्धि द्वारा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करे। क्योंकि इन्द्रियों पर विजय प्राप्त किये बिना यम-नियमों का पालन करना मनुष्यों के लिए व्यर्थ हो कायाक्लेश (शरीर को कष्ट देना) है। व्याख्या-इन्द्रियां द्रव्य और भाव से दो प्रकार की है। चमड़ी, जीम, नासिका, आँख और कान यह आकाररूपपरिणत जो पुद्गलद्रव्यरूप है, वे द्रव्य-इन्द्रिय है; और स्पर्श, रस, गंध, दर्शन तथा श्रवणरूप विषयों की अभिलाषा करना भावेन्द्रिय है। उसकी आसक्ति का त्याग करना तथा उस पर विजय प्राप्त करना चाहिए । इस सम्बन्ध में जान्तर श्लोकों का भावार्थ प्रस्तुत करते हैं-'इन्द्रियसमूह से पराजित जीव अनेक दुःखों से परेशान रहता है। इसलिए सभी दुःखों से मुक्त होने हेतु इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना चाहिए । इस विषय में सर्वथा प्रवृत्ति बन्द कर देना, इन्द्रियविजय नहीं है, अपितु प्रवृत्ति रागद्वेष से रहित हो ; तभी इन्द्रियविजय कहलाता है । इन्द्रियों के निकटस्प विषयों के संयोग को हटाना असंभव है; इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति उक्त विषय के निमित्त से होने वाले राग-ष का त्याग करते हैं । संयम-योगी की इन्द्रियां सदा मारी हुई और न मारी हुई दोनों प्रकार की होती हैं। हितकर संयम-योग
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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