________________
३०
योगशास्त्र : प्रथम प्रकाश
अतः
में वे वज्रनाभ चक्रवर्ती थे, तब वह इनका सारथी था । इन्होंने उस समय दीक्षा भी ग्रहण की थी। बुद्धिशाली श्रेयांसकुमार को निर्दोष भिक्षा देने की विधि का स्मरण हो आया । उसने प्रभु को पारण में लेने योग्य प्रासुक इक्षु-रस दिया। रस बहुत था तो भगवान् के कर पात्र में वह समा गया । उस समय श्रेयांस के हृदय में हर्ष नही समाया । वहीं रस मानो अजल में जम कर स्थिर हो कर ऊँची शिखा वाला बन कर आकाश मे ( उच्चलोक में) ले जाने वाला बना ; क्योकि महापुरुषो का प्रभाव अचिन्त्य शक्तिशाली होता है । प्रभु ने इक्षुरस से पारणा किया। देवो, असो तथा मनुष्यों ने भी नेत्रों से प्रभु के दर्शनामृत से पारणा किया। आकाश में देवो ने मेघ के समान दुन्दुभि-नाद और जलवृष्टि के समान रत्नों और पुष्पों की वृष्टि की। इसके पश्चात् प्रभु विहार करके बाहुबलि राजा की राजधानी तक्षशिला पधारे। नगर के बाहर उद्यान में वे एक रात्रि तक ध्यानस्थ रहे :
बाहुबली ने विचार किया कि "मैं सुबह होते ही स्वामी के दर्शन करूंगा तथा और लोगों को दर्शन करा कर तंत्र पवित्र कराऊगा । कब प्रातःकाल ही और कब मैं प्रभु के दर्शनार्थ पहुंचू ।" इसी चिन्ता ही चिन्ता में रात्रि एक महीने सो प्रतीत हुई । प्रात काल जब बाहुबलो वहा पहुंचा तो प्रभु अन्यत्र विहार कर गये । चन्द्ररहित आकाश के समान उद्यान को निस्तज देख कर मन में विचार किया कि जैसे ऊबड़खाबड़ जमीन पर बीज नष्ट हो जाता है, वंस ही मर हृदय के मनोरथ नष्ट हो गये । धिक्कार हूँ मुझ प्रमादी को !' या कह कर बाहुबली आत्म-निदा करने लगा। जिस स्थान पर प्रभु ध्यानस्थ खड़े थे, उस स्थान पर बाहुबली ने रत्ना को एक वेदिका और सूर्य के समान हजार आँखों वाला तेजस्वी धर्मचक्र बनाया । विविध अभिग्रह धारण करते हुए स्वामी आर्यदेश की ही तरह अधार्मिक लच्छदेश में भी विचरण करते रहे। यागिजन सदैव समभावी होत है। प्रभु के विचरण करने से वहाँ के पापकर्मी लोग भी और अधिक दृढधमी बन गये । इस तरह बिहार करते हुए प्रभु को एक वर्ष हो चुके, तब विचरण करते हुए एक बार स्वामी पुरिमताल नगर में पधारे। नगर के ईशान कोण में शकटाल नामक उपवन था। वहाँ वटवृक्ष के नीचे, प्रभु अट्टमतप करके कायोत्सर्ग ( ध्यान ) में स्थिर रहे । प्रभु क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हो कर अपूर्वकरणा के क्रम से निर्मल शुक्लध्यान के मध्य में आ पहुचे और तभी उन्होंने अपने घातिकर्मो को बादलों की तरह छिन्न-भिन्न कर दिया, जिससे स्वामी को केवलज्ञानरूपी सूर्य प्रकट हुआ ।
उस समय आकाश मार्ग में अत्यन्त भीड़ हो जाने के कारण विमान परस्पर टकरा जाते थे । इस प्रकार अनेक देवों के साथ चौसठ इन्द्र वहाँ आये । भूमि सम्माजन करने वाले वायुकुमारदेवो ने प्रभु के समवसरण का स्थान माफ करके समतल बना दिया। मेधकुमार देवों ने वहाँ सुगन्धित जल की वृष्टि की, जिससे वहाँ की धूल जम गई। छह ऋतुओं ने पृथ्वी पर घुटनों तक फूल बिछा दिये । सच है, पूज्यों का संसगं पूजा के लिए ही होता है । वह्निकुमारदेवों ने समवसरण की भूमि को सुगन्धित धूप से सुगन्धमय बना कर सारं आकाश को भी सुरमित कर दिया । इन्द्र और देवो द्वारा रंगबिरंगी रत्नकान्ति से सुसज्जित समवसरण की रचना ऐसी लग रही थी, मानो एक साथ संकड़ों इन्द्रधनुष हो गए हों । भवनपति, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों ने चांदी, मोने और माणिक्य के तीन किले वहां बनाए। किले पर फहराती हुई पताकाएं मानो जीवों को सूचित कर रही थीं कि यह मार्ग स्वर्ग का है, यह मार्ग मोक्ष का है। किले पर विद्याधारियों की रत्ननिर्मित पुतलियाँ सुशोभित हो रही थी। देवताओं ने समदमरण
मं
यह सोच कर प्रवेश नहीं किया कि शायद हमारा समावेश अन्दर नहीं हो सकेगा। मुग्ध देवांगनाएँ