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लोभ पर विजय पाने का मुख्य उपाय-संतोषधारण
लोभसागरमुवेलमतिवेलं महामतिः ।
संतोषसेतुबन्धेन, प्रसरन्तं निवारयेत् ॥२२॥ अर्थ--- लोमरूपी समुद्र को पार करना=लांधना अत्यन्त कठिन है। उसके बढ़ते हुए ज्वार को रोकना दुष्कर है । अत: महाबुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि सतोषरूपी पुल बांध कर उसे आगे बढ़ने से रोक ले।
व्याख्या -- संतोप लोन का प्रतिपक्षी मनोधर्म है। जैसे जल को रोकने के लिए बांध बांधा जाता है, वैसे ही लोभकपाय को कने और उस पर विजय पाने के लिए सन्तोपरूपी बांध बांधा जाना चाहिए । इस विषय में कुछ आन्नरश्नोक हैं, जिनका भावार्थ यहां प्रस्तुन करते हैं-"जैसे मनुष्यों में चक्रवर्ती और देवों में इन्द्र मो नम माना जाता है, वैसे ही मब गुणो में मन्तोष सर्वोत्तम गुण माना जाता है। सन्तुष्ट माधु और असन्तुष्ट चक्रवर्ती इन दोनों के मुखदुख की तुलना की जाए तो साधु अधिक मुख से युक्त मालूम होगा, और चक्रवर्ती अधिक दुःख से युक्त । मंतोषामृत-पान की इच्छा से स्वाधीन बना हुआ चक्रवर्ती क्षणभर में छह वण्ड के राज्य को छोड़ कर निःसगता-नि स्पृहता अपना लेता है। जिस. जीवन में धन की तृष्णा खत्म हो गई है, उमक गामने सम्पदाएं हाथ जोड़े खड़ी रहती है। उंगली में कान को बंद कर लन पर कान में शब्दो के अद्वैत में वृद्धि हो जाती है ; जो शब्द कान से दूर था, वह अपने आप कान में गूजने लगता है। संतोप प्राप्त होन पर प्रत्येक वस्तु से वैराग्य हो जाता है । दोनों आँख मूद लेने पर नि:संदेह सारा चराचर विश्व भी ढक जायगा। जिसने केवल एक सतोग गुण का हासिल नही कम उमके कंवल इन्द्रियों के दमन करने से और सिर्फ काया को कष्ट देने से वघा लाभ ? संतोष में निवा ही मुक्तिलक्ष्मी के मुख का दर्शन होता है। जो शरीरधारी इम सांसारिक जिंदगी में रहते हा भी लाभ से दूर रहता है, वह यही मूक्तिसुख का अनुभव करता है। क्या मुक्ति के मिर पर कोई मीग लगे होते हैं ? राग-द्वप से मिश्रित अथवा विषयजनित सुख किस काम का? क्या संतोप से उतान्न सन मोक्षसख में कम है ? दूमरों को विश्वाम दिलाने वाले शास्त्र के सुभापिनों के कोरे उच्चारण में कौन-मा सुख मिल जायगा? आँखें बंद करके जरा संतोप के आस्वाद से होने वाले मुख का मन में विचार कगे! यदि तुम यह स्वीकार करते हो कि 'कारण के अनुरूप कार्य होता है; तो मंतोपजनित आनन्द से मोक्षानन्द की प्रतीनि करो। यह ठीक है कि तुम कर्मों को निर्मूल करने के लिए तीव्र तप करते हो : किन्तु वह तप भी संतोपविहीन हुआ तो उसे निष्फल समझना । सुखार्थी मनुष्य केवल खेती, नौकरी, पशुपालन या कोई व्यापार करके कौन-सा मुख प्राप्त कर सकता है? क्या संतोपामृत का पान करने में आत्मनिवृत्तिरूप सुख का परम लाभ नहीं कर सकता? अवश्य
सकता है। घास के बिछौने पर सोने वाले संतोपी को जो सुख मिल सकता है, वह पलंग पर या गकियों पर सोने वालों को कमे नमीब हो सकता है ? असंतोपी धनिक भी अपने स्वामी के सामने तिनके के समान है: जबकि सतीषी के सामने वह स्वानी भी तिनके के समान है; चक्रवर्ती और इन्द्र का वैभव परिश्रम से मिलता है लेकिन अन्त में तो वह भी नाशवान है, जबकि संतोष से मिलने वाला सुख विना ही परिश्रम में प्राप्त होता है और वह शाश्वत भी रहता है।
__इस प्रकार लोभ का सारा प्रतिपक्ष रूप परमसुख-साम्राज्यस्वरूप सनोष में जानना चाहिए। इसलिए लोभाग्नि मे फैलते हुए परिताप को शान्त करने के लिए सतोषामृतरस पी कर आत्म गृह में रति करो।" इसी बात को समुच्चयरूप में एक श्लोक में कहते हैं