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योगशास्त्र : चतुर्थ प्रकाश
व्याख्या -- इस ससार में आत्मज्ञान के बिना सभी प्रकार के दुख प्राप्त होते हैं। जैसे प्रकाश से अन्धकार का नाश होता है, वैसे ही प्रतिपक्षभूत आत्मज्ञान के द्वारा दुःख का नाश होता है। इस विषय में कई लोग शका उठाते हैं कि 'कर्मक्षय करने का मुख्य कारण तो तप है, ज्ञान नहीं है, इसलिए कहा भी है कि-- - 'पहले गलत आचरण से कर्मबन्धन किया हो उसका प्रतिक्रमण नही किया हो, ऐसे कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता, अथवा तपस्या करके कर्मों का क्षय कर मुक्ति प्राप्त की जा सकती है ।' इसका समाधान यों करते हैं कि-'अज्ञानी आत्मा दुःख को तपस्या या अन्य किसी अनुष्ठान से काट नही सकता । आत्मा विशुद्धज्ञान से ही दुःख का छेदन कर सकता है, ज्ञान के बिना तप अल्पफलदाय होता है । कहा भी है- 'करोड़ वर्ष तक तप करके अज्ञानी जितने कर्मों का क्षय करता है, उतने कर्मों को तीन गुप्तिधारक ज्ञानी एक श्वासोच्छ्वास मात्र मे क्षय कर लेता है। इससे यह फलित हुआ कि बाह्यपदार्थों या इन्द्रियविपयो का त्याग कर रत्नत्रय के सर्वस्वभूत आत्मा में प्रयत्न करना चाहिए। अन्यदर्शनी कहत है—''आत्मा वारे श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यश्च" अर्थात् 'अरे ! यह आत्मा श्रवण करने योग्य, मनन करने योग्य और ध्यान करने योग्य है ।' आत्मज्ञान, आत्मा से जरा भी भिन्न नहीं है । परन्तु ज्ञानस्वरूप आत्मा को आत्मा अपने अनुभव से जान सकता है। इससे भिन्न कोई आत्मज्ञान नहीं है । इसी तरह दर्शन और चारित्र भी आत्मा से भिन्न नही है। इस प्रकार का चिरूप आत्मा ज्ञानादि के नाम से भी पुकारा जाता है । यहाँ शंका होती है कि 'अन्य विषयों को छोड़ कर इसे आत्मज्ञान ही क्यों कहा जाता है ? अन्य विषयों का ज्ञान भी तो अज्ञानरूप दुःख को काटने वाला है ! समाधान करते हैं कि 'ऐसी बात नही है, सभी विषयों में आत्मा की ही मुख्यता है । कर्म के कारणभूत, शरीर धारण करने में आत्मा ही दुःखी होती है, और कर्म के क्षय होने से वही आत्मा सिद्धस्वरूप होने पर सुखी होती है। इसी बात को आगे कहते हैं
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अयमात्मैव चिद्रूपः शरीरी कर्मयोगतः ।
ध्यानाग्निदग्धकर्मा तु सिद्धात्मा स्यान्निरञ्जनः । ४ ॥
अर्थ - समस्त प्रमाणों से सिद्ध आत्मा वास्तव में चेतन - ज्ञानस्वरूप है; क्योंकि 'जोब का लक्षण उपयोग है। शरोरी तो वह कर्म के सयोग से बनता है; किन्तु अन्य विषयों में ऐसा नहीं बनता, इससे अन्य विषयों का ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है । जब यह आत्मा ही शुक्लध्यानरूपी अग्नि से समस्त कर्मरूपी इंधन को भस्म कर शरोररहित हो जाता है, तब मुक्तस्वरूप सिद्धात्मा निरजन निर्मल बन जाता है।
अयमात्मैव संसारः, कषायेन्द्रियनिजितः । तमेव तद्विजेतारं, मोक्ष माहुर्मनीषिणः ॥५॥
अर्थ - कषाय और इन्द्रियों के वशीभूत यह आत्मा हो नरक-तियंच-मनुष्य-देवगतिपरिभ्रमणरूप संसार है और जब यही आत्मा कषायों और इन्द्रियों को जीत लेता है, तो उसी को बुद्धिशाली पुरुषों ने मोक्ष कहा है।
व्याख्या - स्वस्वरूप की प्राप्ति के अतिरिक्त कोई मोक्ष नहीं है, जो आनन्दस्वरूप है, उसमें भी आत्मा अपना स्वरूप ही प्राप्त करता है। इस कारण से आत्मज्ञान की उपासना करनी चाहिए ।