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________________ ऋषभदेव द्वारा की गई राज्यव्यवस्था ओर संसारचिन्तना २७ के कारण ताम्रपर्णी की तरह शोभायमान होती थीं। नगरी में बड़े-बड़े धनाढ्य रहते थे । ऐता प्रतीत होता था, मानो उनमें से किसी एकाध के पास वणिक्पुत्र कुबेर भी व्यवसाय करने के लिए गया हो । चद्रकांत मणि की बनी महलों की दीवारों में से रात को झरते हुए जल से मार्ग की धूल जमा दी जाती थी । उसी नगरी में अमृतोपम मधुर जल की लाखों की संख्या में बावड़ी, कुंए सरोवर, नवीन अमृतकुंड वाले नागलोक को भी मात कर रहे थे । राज्यव्यवस्था का वर्णन गजाऋषभ उस नगरी को विभूषित करते हुए अपनी प्रजा का पुत्रवत् पालन करते थे । लोकोपकार की दृष्टि से ऋषभ राजा ने पाँच शिल्पकलाएँ, जो प्रत्येक २०-२० प्रकार की थीं, प्रजा को सिखाई । राज्य की स्थिरता के लिए गाय, घोड़ हाथी आदि एकत्रित करके उन्हें पालतू बनाए और सामदाम आदि उपायों वाली राजनीति भी बताई । अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को बहत्तर कलाएँ सिखाई । भरत ने भी अपने भाइयों, अपने पुत्रों एवं अन्य पुरुषों को वे कलाएँ सिखाई । ऋषभ राजा ने बाहुबलि को हाथी घोड़े, स्त्री और पुरुष के विविध लक्षण सिखाए। अपनी पुत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से अठारह लिपियां और पुत्री सुन्दरी को बांये हाथ मे गणित विद्या सिखाई । उसके बाद वर्ण-व्यवस्था करके न्यायमागं प्रवर्तित किया । इस तरह नाभिपुत्र श्री ऋषभदेव ने अपनी जिंदगी के तिरासी लाख पूर्व वर्ष पूर्ण किए । एक बार वैशाख के महीने में परिवार के आग्रह से प्रभु कामदेव के द्वारा अपने लिये बनाये गये आवास के तुल्य उद्यान में पधारे। वहाँ विकसित आम्र-मंजरी देख कर प्रभु आनन्दमग्न हुए । भौंरे गुनगुना कर मानो प्रभु का स्वागत कर रहे थे । उद्यान में मानो वसंतलक्ष्मी प्रगट हो चुकी थी । कोयल पंचमस्वर से गा कर मानो नाटक की सूत्रधार बन कर प्रस्तावना कर रही थी । वायु लताओं को नृत्य करा रही थी । मन्द, सुगन्ध मलयानिल से मानो पुष्पों के वासगृह में बैठे, पुष्प के आभूषणों से भूषित, प्रभु पुष्पदण्डयुक्त हस्त वाले लगते थे । वृक्ष की डालियों के आसपास कुतूहलवश फूल चुनने के लिए एकत्रित हुए नागममूह को देख कर ऐसा लगता था मानो ये पेड़ स्त्रीरूपी फलों से युक्त हों। इस प्रकार उस उद्यान में प्रभु ऐसे सुशोभित होने लगे मानो साक्षात् वसन्त हो । वहीं भरत आदि बालक आनन्द से खेल रहे थे । उन्हें देख कर प्रभु ने विचार किया -क्या दोगुन्दक देवों को क्रीड़ा इसी प्रकार होती होगी ? उस समय प्रभु अवधिज्ञान के प्रयोग से अनुत्तर देवलोक के पूर्वजन्ममुक्त सुखों पर चिन्तन करते हुए आगे से आगे के देवलोक के ज्ञात सुखों के अनुभव की गहराई में उतर गए । प्रभु के मोहबन्धन नष्ट हो गये थे, इसलिए एक ही झटके में विचारों को नया मोड़ दिया कि इन स्वर्गीय विषयसुखों में वही फँसता है, जो अपना आत्महित नहीं समझता । धिक्कार है उस आत्मा को, जो इस संसाररूपी कुए में रेहट की घटिकाओं की तरह कर्मवश विविध ऊँचे-नीचे स्थानो में चढ़ाव उतार की क्रिया करता रहता है ।' यों विचारसागर में गोते लगाते हुए प्रभु का मन संसार से पराङमुख हो गया । इतने में तो सारस्वत आदि लोकन्तिक देव प्रभु की सेवा में आ पहुँचे । मस्तक पर अजलि करके उन्होंने नमस्कार किया और प्रभु से प्रार्थना की- 'प्रभो! अब तीर्थ-रचना कीजिए।' उन देवों के जाने के बाद नंदन नामक उद्यान से नगरी में लौट कर प्रभु ने राजाओं को बुलाए । एक समारोह का आयोजन करके सभी राजाओं के समक्ष बड़े पुत्र भरत का राज्याभिषेक किया। उसके बाद प्रभु ने बाहुबलि आदि पुत्रों को राज्य वितरित किया। फिर संवत्सरी (वर्षभर तक) दान दे कर पृथ्वी को इस प्रकार तृप्त की, जिससे कहीं पर भी 'मुझे दो' इस प्रकार के याचना के दीनवचन न रहें। सभी इन्द्रों के आसन कंपायमान होने से वे वहाँ आए
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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