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________________ स्पूलभद्र को संसार से विरक्ति और उपकाशा द्वारा धर्मभ्रष्ट वररुचि मृत्यु के लिए बध्य ४.५ स्वीकार करने को कहा । तब स्थूलभद्र ने कहा-मैं पहले इस पर भलीभाति सोचविचार करके ही आपकी आज्ञा का पालन कर सकूगा।" राजा ने कहा- 'आज ही विचार कर लो।" इस प्रकार कहने पर स्थलभद्र ने अशोकवन में जा कर सोचा "राजसेवक दरिद्र के समान समय पर शयन, भोजन, स्नान आदि सुख-साधनों का उपभोग नही कर सकता । भरे हुए घड़े में जैसे और पानी की गुंजाइश नहीं रहती, वैसे ही स्वराष्ट्र की चिन्ता में व्यग्र राजसेवक के चित्त में प्राणवल्लभ के लिए भी जरा भी गुंजाइश नहीं रहती। अपने तमाम निजी स्वार्थों को तिलांजलि दे कर वह एकमात्र राजा की सेवा करता है. फिर भी बांधे हुए पशु को जैसे कौए नोंच-नोंच कर हैरान करते हैं, वैसे ही दुष्ट लोग उसे हैरान करते रहते हैं । वह बुद्धिमान जितना अपने शरीर और धन को निचोड़ कर राजा की सेवा के लिए जीतोड़ पुरुषार्य करता है, क्या उतना ही पुरुषार्थ अपनी आत्मा के लिए नहीं कर सकता?" यों विचार करते-करते स्थूलभद्र को ससार से विरक्ति हो गई। ! उन्होंने स्वयं पचमुष्टि केश-लोच किया और रत्नकम्बल की दशियों का रजोहरण बना कर साघवेष पहन कर तत्काल वह महासत्व राजसमा में प्रविष्ट हुआ । राजा से उन्होने निवेदन किया- "मैंने इस स्थिति में रहने का विचार कर लिया है और आपको धर्मलाभ हो। यो आशीर्वादसूचक वचन कह कर वह महासत्त्व राज्यसभा से इसी प्रकार बाहर निकल गए, जिस प्रकार केसरीसिंह गुफा से बाहर निकलता है। राजा ने गवाक्ष में बैठे-बैठ स्थूलभद्र को जाते हए देखा कि कहीं यह वैराग्य होने का बहाना बना कर वेश्या के यहां तो नहीं जाता? परन्त जब राजा ने यह जान लिया कि वह वेश्यागृह को उसी तरह छोड़ कर जा रहा है, जैसे, दुर्गन्धपूर्ण लाश को देखते ही आदमी नाक-भौं सिकोड़ कर चला जाता है। राजा ने सिर हिलाया और विचार किया कि निश्चय ही भगवान वैरागी बने है। मैंन इनके विषय में गलत अनुमान लगाया। इस तरह अपनी आत्म-निन्दा करते हुए स्थूलभद्र का अभिनन्दन किया। श्रीस्थूलभद्र ने भी आचार्य श्रीसंभतिविजय के पास जा कर सामायिक-पाठ का उच्चारण करक दीक्षा अगीकार की। इसके बाद नन्दराजा ने श्रीयक के हाथ में गौरव पूर्वक समग्र राज्य-व्यवस्था के कार्यभार की मत्री-मुद्रा दी और मत्री के सारे अधिकार उसे सौंप दिये। श्रीयक भी सदा श्रेष्ठ न्याय और कुशलता से राज्य-व्यवस्था म सावधानी रखता था, मानो साक्षात् णकटाल ही हो। वह विनयपूर्वक कोशा के यहां जाना था। भाई के स्नेहसम्बन्धवश उसकी प्रिया का भी कुलीनपुरुष सत्कार करते हैं । स्थलभद्र के वियोग से दुःखित कोशा भी श्रीयक को देख कर जोर-जोर से रोने लगी । ईष्ट को देख कर दुःखी पुरुष दुःख से अधीर हो जाते हैं। वे अपने हृदय में दुःख को अधिक देर तक टिकाए नहीं रख सकते। इसके बाद श्रीयक ने कोशा से कहा-'आर्य ! बताओ हम इसमें क्या कर सकते हैं ? पारी वररुचि ने ही मेरे पिता की हत्या करवाई। अकाल में उत्पन्न वज्राग्नि के समान स्थूलभद्र का अकारण वियोग भी उसने ही कराया है । अतः मनस्विनि ! जब तक वररुचि की तुम्हारी बहन उपकोशा में आसक्ति है ; तब तक उसका प्रतिकार करने का कोई विचार कर लो . उपकोशा को गुप्तरूप से समझा कर किसी भी बहाने से वररुचि में शराब पीने की आदत डाल दो।' अपने स्नेही के वियोग में वैर का बदला लेने के लिये देवर के चातुर्य से उसने ऐसा करना मंजूर किया और धीरे-धीरे उपकोशा को सारी बातें चुपचाप समझा दी । कोशा की सलाह से उसकी छोटी बहन उपकोशा ने उसी तरह किया । वररुचि को जबरन शराब पीने को बाध्य कर दिया। स्त्री अपने गुलाम बने हुए पुरुष से क्या नहीं करा सकती है ? वररुचि ब्राह्मण को अपनी इच्छानुसार मदिरापान करवा कर प्रातःकाल उपकोशा ने अपनी बहन कोणा के पास जा कर सारी बातें कहीं।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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