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निद्रा लेने के पहले और निद्रात्याग के बाद श्रावक की चर्या ने बाह्य और आभ्यन्तर रूप से बारह प्रकार के तप बताए हैं, उनमें स्वाध्याय के समान कोई तप नहीं है, न होगा, न हुआ है । और भी कहा है कि "स्वाध्याय में ध्यान होता है और स्वाध्याय से परमार्थ भी जाना जा सकता है ; स्वाध्याय में तन्मय बना हुआ आत्मा क्षण क्षण में वैराग्य प्राप्त करता है।" इस प्रकार १२६वें श्लोक का भावार्य पूर्ण हुआ
न्याय्ये काले ततो, देव-गुरु-स्मृति-पवित्रितः ।
निद्रामल्पानुपासोत, प्रायेणाब्रह्मवर्जकः ।।१३०॥ अर्थ-स्वाध्याय आदि करने के बाद उचित समय तक देव एवं गुरु के स्मरण से पवित्र बना हुआ एवं प्रायः अब्रह्मचर्य का त्यागी या निर्यामत जावन बिताने वाला धावक अल्पनिद्रा ले।
व्याख्या-रात्रि के प्रथम पहर तक, या आधी रात तक अथवा शरीर स्वस्थता के अनुसार, स्वाध्याध्यादि करने के बाद धावक अल्पनिद्रा का सेवन किस प्रकार करे ? इसे बताते हैं -भट्टारक श्री अरिहंतादि देव, धर्माचार्य. गुरुमहाराज का मन में स्मरण कर पवित्र बना हुआ आत्मा, उपलक्षण से चार शरण अंगीकार करके, पापमय कृत्यों की निन्दा और सुकृत्यों की अनुमोदना कर पंच परमेष्ठी भगवन्तों का स्मरण इत्यादि करे । इन सभी के स्मरण किये बिना आत्मा पवित्र नहीं बन सकता । इसलिए श्रीवीतरागदेव का स्मरण इस प्रकार करे- "नमो वीयरागाणं सवण्णूणं तिलोरकपूहमाणं महभिवत्पु बाईगं अर्थात नमस्कार हो श्री वीतराग, सर्वश, त्रिलोकपूज्य, यथार्थरूप से वस्तुतत्त्व के प्रतिपादक, श्री अरिहंत परमात्मा को। इसके बाद गुरुदेवों का स्मरण इस प्रकार करे-'धन्यास्ते प्राम-नगर-जनपदाबयो ये मदीया धर्माचार्या विहरन्ति" अर्थात 'उस गांवों, नगरों, देशों प्रान्तों आदि को धन्य है, जहां मेरे धर्माचार्य गुरुदेव विचरण कर रहे हैं। शयन से पूर्व और निद्रात्याग के पश्चात इस प्रकार से चिन्तन करे । अल्पनिद्रा में निद्रा विशेष्य है और अल्प विशेषण है। यहां पर अल्प का विधान किया है ; निद्रा का नहीं । क्योंकि जिस वाक्य में विशेषणसहित विधि-निषेध होता है. उसका विधान विशेषणपरक होता है, विशेष्य रक नहीं, इस न्याय से यहां 'निद्रा लेना' विधान नहीं है। निद्रा तो दर्शनावरणीय कर्म के उदय से अपने आप आती है । नहीं बताये हुए पदार्थ में ही शास्त्र की सफलता मानी जाती है। यह बात पहले कही जा चुकी है। इसलिए यहाँ निद्रा में अल्पत्व का विधान किया गया है। और गृहस्थ प्रायः अब्रह्मच्यं =मैथुनसेवन का त्याग करता ही है । और भी देखिये --
निवाच्छे योषदंगात्तत्वं परिचिन्तयेत् ।
स्थूलभद्रादिसाधूनां तन्निवृत्ति परामृशन् ॥१३ ॥ अर्थ - रात को जब नींद खुल जाय, तब स्थूलभद्रादि मुनियों ने जिस प्रकार स्त्रियों के अंग को मलिनता, जुगुप्सनीयता और निःसारता का विचार किया था, उसी प्रकार अंगनाओं के अंगों के यथार्थ तत्व का चिन्तन करे और उनकी तरह स्त्रियों से निवृत्ति का स्मरण करते हुए अपने शरीर के वास्तविक स्वरूप पर विचार करे।
श्रीस्थूलभद्रमुनि का सम्प्रदायपरम्परागम्य चरित्र इस प्रकार हैं