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समस्त पच्चक्खाणों के आगारों की गणना एवं प्रत्याख्यानशुद्धि की विधि
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यह पच्चक्खाण भंग नहीं होता। परन्तु विशेषरूप से घी आदि डाल कर खाना उक्त धारविग्गई के पच्चक्खाण वाले के लिए कल्पनीय नही है। इस प्रकार विग्गई के पच्चक्खाण वाले के लिए कल्पनीय नहीं है। इस प्रकार विग्गई-त्याग और उपलक्षण से नीवी-पच्चक्खाण के जो आगार बताए हैं, उनकी .यतना रख कर, बाकी का बोसिरई त्याग करता हूँ। त्याग की हुई किसी विग्गई में गुड़ का टुकड़ा रखा हो तो उसे उठा कर वह विग्गई ली जा सकती है। इस दृष्टि से गुड़ विग्गई के नौ और दूध आदि तरल विग्गई के आठ-आठ आगार समझ लेने चाहिए।
आगारों का दिग्दर्शन कराने वाली इसी बात की पोषक आगमगाथाओं का अर्थ यहां प्रस्तुत करते हैं - 'नमुक्कारसहिय (नौकारसी) पच्चक्खाण के दो, पोरसी के ६, पुरिमड्ढ (पूर्वार्ट') पच्चक्खाण के सात, एकासन के ८, उपवास के ५, पानीसहित उपवासादि के ६, दिवसचरम और भवचरम प्रत्याख्यान के ४, अभिग्रह के ४ अथवा अन्य चार तथा नीवी के ८ या ९ आगार होते हैं। इनमें भी अप्रावरण अभिग्रह में पांच और शेष अभिग्रह पच्चक्खाण में चार आगार होते हैं । यहाँ शंका होती है कि नीवी के लिए कहे हए आगार विग्गई-त्यागरूप पच्चक्खाण के अन्तर्गत बताए हैं, तो कोई तमाम विग्गडयों का त्याग न करके कुछ विग्गइयों की छूट रखता है, किसी या किन्हीं विग्गइयों का ही त्याग करता है। ऐसे विग्गई-पच्चक्खाण में आगार किस तरह समझने चाहिए ?' इसका समाधान यह है कि नीवीपच्चक्खाण के साथ ही उपलक्षण से परिमित-विग्गई-पच्चक्खाण का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। उसमें भी वेदी आगार समझने चाहिए । अर्थात् नोवो में जो बागार बताए हैं, वे ही आगार (परिमित) विग्गईपचक्याण में भी हैं । इसी प्रकार एकासन के साथ बियासणा तथा पोरसो के साथ साड्ढपोरसी ओर पुरिमट के साथ अबढ का पच्चक्खाण समझ लेना चाहिए । अप्रमत्तता की वृद्धि होन स उस पच्चक्खाण के साथ बोलना अनचित नहीं है। एकासनादि-सम्बन्धी आगार एक सरीखे होने स बियासनाम:
इढपोरसी आदि में समझ लेना। क्योंकि चउबिहार में जो आगार हैं, वे ही तिविहार, दुविहार पच्चक्खाण के आगार है. उसी तरह बिआसणा आदि व एकासन आदि गार आसनादि शब्द की समा. नता से युक्त हैं। यहां शंका होती है कि बियासणा मादि पच्चक्खाण यदि अभिग्रहरूप हैं, तो उसक चार
चाहिए, अधिक क्यों ? इसका समाधान यों करते हैं कि एकासन बादि के समान ही उसका ग्रहण, पालन, रक्षण आदि होने से उनके साथ समानता है; इसलिए बियासन में भी उतने ही जानने चाहिए । अन्य आचार्यों की मान्यता है कि बियासन आदि के पच्चक्खाण मूल पच्चक्खाणों म नही गिनाये गए है । मूल में एकासन मादि दस पच्चक्खाण हो मान गय है, अतः इतन ही ठीक है । यदि कोई एकासन आदि पच्चक्खाण करने में असमर्थ हो, तो वह अपनी भावना और शक्ति के अनुसार पोरसी आदि उच्चपच्चक्खाण कर सकता है। इससे भी अधिक लाभ-प्राप्ति के अभिलाषा को उस (पोरसी आदि) के साथ गंठिसहित, मुठिसहित आदि प्रत्याख्यान करना उचित है । क्योंकि गंठिसहित बादि पच्चक्खाण भी अप्रमत्तदशा को बढ़ाने वाले और फलदायी हैं। ये पच्चक्वाण स्पर्शनादि गुण वाले होते और सुप्रत्याख्यान कहलाते हैं। इसी के समर्थन में सभी प्रत्याख्यानों की सम्यकशुद्धि के हेतु कहा हैफासियं, पालियं, सोहियं, तीरियं, कीट्टिय, माराहिय । इस तरह प्रत्यास्यान की शुद्धि पूर्वोक्त ६ प्रकार से होती है । (१) फासियं (स्पशित)=प्रत्याख्यान के समय विधिपूर्वक उसका स्पर्श प्राप्त होना; (२) पालियं (पालित) =ग्रहण किये हुए प्रत्याख्यान का बार-बार उपयोगपूर्वक स्मरण रख कर उसे भलीभांति सुरक्षित रखना-भंग होने से बचाना या पालना ; (३) सोहियं (शोभित)बाये हुए आहार में से