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ऋषभदेव के अंगोपांगों एवं विवाह का वर्णन
२५ लम्बी थी और न स्थूल । वह बारह अंगुल परिमाण थी। बीच में काली और उज्ज्वल तथा दोनों सिरों पर लाल एव कान के आखिरी सिरे तक लम्बी प्रभु की आंखें, ऐसी मालूम होती थी, मानो वे नीलस्फटिक और माणिक्यरत्न से निर्मित हों। उनकी अंजन के समान श्याम पलकें ऐसी मालूम होती थीं, मानो विकस्वर कमलों पर भौंरे बैठे हों। प्रभु की श्याम और वक्र भौंहे दृष्टिरूपी वापिका के किनारे उत्पन्न हुई लता की-सी शोभा दे रही थीं । प्रभु का भाल-स्थल अष्टमी के चन्द्रमा के समान विशाल, कोमल, गोल, सुहावना और कठोर था। छत्र के समान उन्नत एवं गोलाकार प्रभु का मस्तक तीनों लोकों के स्वामित्व को सूचित करता था। मस्तक के मध्यभाग को सहारा देने वाली प्रभु के मस्तक पर रखी हई पगड़ी मस्तक पर रखे हुए कलश की-सी शोभा बढ़ा रही थी। प्रभु के मस्तक के बाल भौंरे के समान श्याम, घुघराले, कोमल व चिकने थे, वे यमुनानदी की तरंगों के समान प्रतीत हो रहे थे । गोरोचन क गर्भ के समान गोरी और चिकनी, त्रिलोकीनाथ के शरीर की चमड़ी (त्वचा) ऐसी प्रतीत हो रही थी, मानो वह सोने के तरलरस से लिप्त हो । स्वामी के शरीर पर कमलतन्तु से भी पतले, कोमल भौंर के रंग के सदृश श्याम अद्वितीय रोम उगे हुए थे । प्रभु का श्वास विकसित कमल की सुन्धि के समान दुर्गन्ध-रहित था और मांस लाल था और खून था-गाय के दूध की धारा के समान सफेद । इस प्रकार रत्नों के कारण जैसे रत्नाकर सेव्य हो जाता है, वैसे ही असाधारण विविध गुणरत्नों से गुणरत्नाकर बने हुए प्रभु किसके लिए सेव्य न थे ?
ऋषभदेव के विवाह का वर्णन-एक बार बाल्यावस्था के कारण सहजरूप से क्रीड़ा करता-करता कोई यौगलिक बालक एक ताड़ के पेड़ के नीचे आ गया। जैसे एरंड के पेड़ पर अचानक बिजली गिर गई हो, वैसे ही दुर्दैव से उस योगलिक के सिर पर उस समय एक बड़ा-सा ताल-फल गिर पड़ा। इस कारण वह तुरंत अकाल के मरण-शरण हो गया। उस बालक के मर जाने से उसकी साथिन बाला अपने जोड़े का अकस्मात् वियोग हो जाने से हिरणी के समान किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई। अकाल में वज्रपात के समान उसकी कुमृत्यु से दूसरे युगलिये भी मूर्छित और किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। वे लोग पुरुष रहित उस कन्या को आगे करके नाभिकुलकर से परामर्श लेने आए कि "अब इस कन्या का क्या किया जाए ?" उन्होंने सुझाव दिया- 'यह कन्या वृषभनाथ की धर्मपत्नी बनेगी।" यह सुन कर सबके चेहरे पर प्रसन्नता छा गई। जब उस कन्या को स्वीकार कर लिया तो उसका मखचंद्र भी चन्द्रिका के समान खिल उठा; उसके नेत्र भी कमल के समान विकसित हो उठे। पूर्वभव में प्रभु द्वारा बांधे हुए शुभकार्यों के उदयरूप सुफल जान कर शुभ मुहूर्त देख कर एक दिन देवपरिवारसहित इन्द्र प्रभु का विवाह करने हेतु आये। देवताओं ने उसी समय सुवर्णमय स्तम्भ पर शोभायमान रत्नपुत्तलियों वाला, प्रवेशद्वार और बाहर जाने के अनेक द्वार वाला भव्यमण्डप तैयार किया। वह मण्डप श्वेत और दिव्य वस्त्र के चंदोवे से इतना भव्य लगता था मानो मण्डप की शोभा निहारने की इच्छा से आकाशगंगा आकाश से धरती पर उतर आई हो। चारों दिशाओं में वृक्षों के पत्तों की कतार से बने तोरण ऐसे बांधे गये थे, मानों कामदेव द्वारा निमित धनुष हों। आकाश में बहुत ऊंचाई पर पहुंचे हुए रति-निधान-से पंक्तिबद्ध चार रत्न-कलश चारों दिशाओं में देवियों द्वारा स्थापित किए गए थे। मंडप के द्वार पर मेघ सुगन्धित वस्त्रों की वर्षा करते थे और देवियां मंडप के मध्य भाग की भूमि पर चंदनरस का लेप कर रही थीं और बाजे बजा रही थीं तथा मगलगीत गा रही थीं। दिगंगनाएं प्रतिध्वनि के रूप में उसी तरह गाने और बजाने लगीं। इन्द्रमहाराज ने सुमगला और सुनंदा कन्या के साथ प्रभु के पाणिग्रहण का महोत्सव सम्पन्न किया ।