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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश की हुई क्रिया। जैसे गाय दुहते समय अचानक दूध के छोटे या स्नान करते समय सहसा उछल कर पानी के छींटे मुंह में पड़ जाना सहसाकार है । ऐसा हो जाने पर पच्चक्खाण भग नहीं होता। 'बोसिरई' का वर्ष पहले कह चुके हैं।
अब पोरसी के पच्चक्खाण का पाठ कहते हैं
‘पोरिसी पञ्चक्खाइ, उग्गए सूरे चउग्विहं पि आहारं, असणं, पाणं, खाइम, साइम, अण्णत्वणाभोगेगं सहसागारेणं, पच्छन्न-कालेणं विसामोहेणं साहुवयणेणं सम्बसमाहिवत्तिमागारेणं वोसिरह ।"
पोरिसी (पौरुषी) का अर्थ है सूर्योदय के बाद पुरुष के शरीर-प्रमाण छाया आ जाय, उतने समय को पौरुषी (पोरसी) कहते हैं। उसे प्रहर (पहर) भी कहते हैं। इतने काल प्रमाण तक चारों प्रकार के आहार का त्याग (पच्चक्खाण) करना पौरुषी या पौरसी पच्चक्खाण कहलाता है। वह पच्चक्खाण किस रूप में होता है ? इसे कहते हैं-- अशन, पान, खाद्य और स्वाद्यरूप चारों प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ। 'वोसिरह' क्रियापद के साथ इस वाक्य का सम्बन्ध जोड़ना । इस प्रत्याख्यान में ६ भागार है ; पहला और दूमरा दोनों आगार नमुक्कारसी के पच्चक्खाण के ममान ही समझ लेने चाहिए। बाकी के पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं साहुवयणेणं सव्वसमाहिवत्तिआगारेणं ये ४ आगार हैं। अत: ये ६ भागार रख कर पोरसीपच्चक्खाण (सूर्योदय से ले कर एक प्रहर तक) मैं चारों आहार का त्याग करता हूं। पन्छन्त्रकालेणं का अर्थ है-बादलों के कारण, आकाश में रज उड़ने से या पर्वत की आड़ में सूर्य के ढक जाने से, परछाई के न दिखने के कारण प्रत्याख्यान पूर्ण होने के समय का मालूम न होने के कारण कदाचित् पोरसी आने से पहले पच्चक्खाण पार लेने पर भी उसका भंग नहीं होता । परन्तु जिस समय वह खा रहा हो, उस समय कोई ठीक समय बता दे, या ठीक समय ज्ञात हो जाय तो आधा खा लिया हो, वहीं रुक जाय ; शेष भोजन पूर्ण समय होने पर ही करे। यदि अपूर्ण समय जानने के बाद भी भोजन करता है तो उसका वह पच्चक्खाण भंग हो जाता है। 'दिसामोहेणं दिशाओं का भ्रम हो जाने से पूर्व को पश्चिमदिशा समझ कर अपूर्ण समय में भी भोजन कर लेता है तो श्म आगार के होने से पच्चक्खाण भंग नहीं होता । यदि भ्रान्ति मिट जाय और सही समय मालम हो जाय तो पहले की तरह वहीं रुक जाय। यदि वह भोजन करता ही चला जाता है तो उसका पच्चक्खाण खण्डित हो जाता है । 'साहुवयणेणं- उद्घाटा पौरुषों' इस प्रकार के माधु के कथन के आधार पर समय आने से पूर्व ही पोरसी पार ले तो उक्त आगार के कारण प्रत्याख्यानभंग नहीं होता। यानी साधु पोरसी-पच्चक्खाण के पूर्ण होने से कुछ पूर्व ही पोरसी पड़ावें, उस समय 'बहुपरिपुष्णा पोरसी' यों उच्चस्वर मे आदेश मांगे, उसे सुन कर श्रावक विचार करे कि पोरसी पन्चक्खाण पारने का समय हो चुका है ; इस भ्रम (मुगालते) से भोजन कर ले तो उसका पच्चक्खाण मंग नहीं होता। मगर पता लग जाने के बाद वहीं भोजन करता रुक जाय, तब तो ठीक है, अगर न रुके तो अवश्य ही प्रत्याख्यानभंग का दोष लगता है। पोरसी का पच्चक्खाण करने के बाद तीव्र शूल आदि पीड़ा उत्पन्न हो जाय, पच्चक्खाण पूर्ण होने तक धैर्य न रहे और आत्तध्यानरौद्रध्यान होता हो, असमाधि पैदा होती हो तो 'सव्यसमाहिवत्तिभागारेणं नामक आगार (छूट) के अनुसार प्रत्याख्यान पूर्ण होने के समय से पहले ही औषध, पथ्यादि ग्रहण कर लेने पर भी उसका पच्चक्माण भंग नहीं होता अथवा किसी भयंकर व्याधि की शान्ति के लिए वैद्य आदि पोरसी आने से पहले ही भोजन करने के लिए जोर दें तो प्रत्याख्यानमंग नहीं होता। थोड़ा खाने के बाद उस बीमारी में कुछ राहत मालूम दे तो समाधि (शान्ति) होने पर उसका कारण जानने के बाद भोजन करता हुवा