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________________ पवसिक, रात्रिक एवं पाक्षिक प्रतिक्रमण की विधि शुद्धि के लिए काउस्सग्ग में एक लोगस्स का चिन्तन करे; फिर दूसरा काउस्सग्ग दर्शनशुद्धि के लिए करे. सममें भी लोगस्स का ध्यान करे ॥२०॥ तीसरे काउस्सग्ग में क्रमशः रात में लगे ए अतिचारों का चिन्तन करके काउस्सग्ग पूर्ण करे और सिद्धार्ग बुदागं' बोल कर संडासा-प्रमार्जन कर घुटनों के बल खड़े परों से नीचे बैठे ॥२१॥ पहले कहे अनुसार मुहपत्ती पडिलेहण करे, दो वन्दना देकर रात्रि के अतिचार को आलोचना कह कर 'बंदिसुसूत्र' कहे । उसके बाद दो वन्दना दे कर अम्मुठ्ठिमओ सूत्र से क्षमायाचना करे, फिर दो वन्दना दे और आयरिस उबन्माए को तीन गाथा आदि सूत्र कह कर तप-चिन्तन का काउस्सग्ग करे ॥२२॥ उस काउस्सग्ग में मन में निश्चय करे कि अपनी संयमयात्रा में हानि न पहुंचे इस तरह से मैं छह महीने का तप करू । उत्कृष्ट छह महीने तप करने की स्वयं की शक्ति न हो ॥२३॥ तो एक दिन, दो दिन, तीन दिन इस प्रकार एक-एक दिन कम करते-करते पांच महीने का चिन्तन करे । इतना सामर्थ्य न हो तो उसमें भी एक-एक दिन कम करते-करते चार महीने, फिर तीन महीने, दो महीने तक का सोचे । उसका भी सामर्थ्य न हो, तो कम करते-करते एक महीने के तप का चिन्तन करे ॥२४॥ इतना भी सामथ्र्य न हो तो उसमें भी तेरह दिन कम करते हुए चौंतीस भक्त (सोलह उपवास रूप) तप का चिन्तन करना ; वैसी भी शक्ति न हो तो दो-दो भक्त कम करते-करते आखिर चतुर्थभक्त (एक उपवास) तक के तप का चिन्तन करना । उस शक्ति के अभाव में मायंबिल आदि से ले कर पोरसी-नमुक्कारसी तक का चिन्तन करे ॥२५॥ इस तरह चिन्तन करते हुए जिस तप को कर सकता है; उस तप का हृदय में निश्चय करके काउस्सग्ग पूर्ण करे। फिर प्रगट में लोगस्स कहे । तदनन्तर मुहपत्ति-पडिलेहण करे । दो वन्दना दे कर निष्कपट भाव से मन में धारण किया हो, उस तप का गुरु से पच्चक्खाण ग्रहण करे ॥२६॥ बाद में 'इच्छामो अणुसट्ठि' बोल कर नीचे बैठ कर 'विशाल-लोचन-दलं' की तीन स्तुति मंदस्वर से बोले, बाद में शक्रस्तव आदि से देववंदन करे ॥२७॥ पाक्षिक प्रतिक्रमण चर्तुदशी के दिन करना चाहिए, उसमें पूर्ववत् वंदित्तु सूत्र तक देवसिक प्रतिक्रमण करे, उसके बाद सम्यग्ररूप से पाक्षिक प्रतिक्रमण इस क्रम से करे ॥२८॥ प्रथम पक्खी मुहपत्ती पडिलेहण कर दो वन्दना दे, बाद में 'संबुद्धा' क्षामणा कर पाक्षिक अतिचार की आलोचना करे; फिर वन्दना दे कर प्रत्येक क्षामणा कर क्षमायाचना करना, बाद में वन्दना दे कर पाक्षिक सूत्र कहे ।।२९। उसके बाद 'पंबित ' सूत्र बोले ; उसमें 'अग्म दिठमोमि भाराहगाए' पद बोलते हुए खड़े हो कर 'बंदित्त' सत्र पूर्ण करके बाद में काउस्सग्ग करे। उसके बाद मुहपत्ती पडिलेहण कर वन्दना देकर 'समत्त'-समाप्त क्षामना और चार पोम वंदना करे ॥३०॥ उसके बाद पूर्व-विधि-अनुसार शेष रहा देवसिक प्रतिक्रमण पूर्ण करे। परन्तु व तदेवता के स्थान पर भुवनदेवता का काउस्सग्ग करे और स्तवन के स्थान पर 'अजित शांतिस्तब कहे, इतना-सा अन्तर समझ लेना चाहिए। ॥३१॥ इस तरह पाक्षिक विधि के अनुसार क्रमशः चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण-विधि जानना । केवल उसमें जिस-जिस प्रकार का प्रतिक्रमण हो, उसका नाम कहना । ॥३२॥ तथा उनके काउस्सग्ग अनुक्रम से बारह, बीस और नवकारमन्त्र-सहित द्रव्य से चालीस लोगस्स करना और 'सबुबामणा' आदि में तीन, पांच और साधुओं को यथाक्रम से 'मटिओमि' का खामणा करना ॥३३॥ प्रतिक्रमण में 'वंदित्तु' सूत्र का विवेचन अन्य विस्तृत हो जाने के भय से यहां नहीं कर रहे हैं। कायोत्सर्ग-(काउसग्ग) का अर्थ है-शरीर का त्याग करना । उसका विधान यह है कि शरीर से जिनमुद्रा में खड़े हो कर अथवा अपवाद रूप वृद्धताग्लानत्व आदि कारणवश आदि एकाग्रतापूर्वक स्थिर
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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