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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश 'परपति' =विशेष अप्रीतिरूप अथवा किसी दूसरे निमित्त से तथा उपलक्षण से मेरे निमित्त से आपके प्रति मेरा या मेरे प्रति आपका ऐसा कोई अपराध हुआ हो, वह मिथ्या हो; इस प्रकार अन्तिम पद के साथ जोड़ना । अपराध किन-किन विषयों में हुआ? 'मत्त भोजन में 'पाणे = पानी में 'विणए =विनयव्यवहार में खड़े आदि होने में वेयावन्चे औषध, पथ्य, अनुकूल आहार आदि के सहायक होने में मालावे
=एक बार बोलने में आलाप से, 'संलावे'=परस्पर अधिक वार्तालाप करने में 'उच्चासणे =आपके सामने ऊँचे आसन से बैठने से 'समासणे' = आपके बराबर आसन लगा कर बैठने से तथा अन्तरमासाएं' = गुरुदेव किसी से बात करते हों, तब बीच में बोलने से उवरिभासाए' गुरु ने जो बात कही हो, उसे अधिक बढ़ा-चढ़ा कर कहने से 'ज किचि' - जो कोई सहजभाव अथवा सर्व प्रकार से 'मजा'=मेरे से "विणय-परिहीण'=अविनय से-विनयाभाव से हुआ है। 'सुहम वा बायरं वा अल्पप्रायश्चित से शुद्ध होने वाले सूक्ष्म, या विशेषप्रायश्चित से शुद्ध होने वाले बादर, (स्थूल), यहाँ दूसरी बार वा का प्रयोग दोनों के विषय में मिथ्यादुष्कृत देने के लिए हैं। 'तुम्भे जाणह, अहं न जाणामि'=आप सकलभाव को या उन मेरे अपराधों को जानते हैं, मैं नहीं जानता । मूढ होने से मैं अपने अपराध को भी नहीं जानता और मैंने जो अपने अपराध गुप्तरूप से किये हों वे आपको नहीं बताये हों, उन्हें (मेरे उन अपराधों को) मैं जानता हूँ। और आप दूसरों के किए हुए अपराध नहीं जानते ; और मैं भी विस्मृति आदि के कारण कई अपराधों को नहीं जानता हूंगा; तथा आपके सामने प्रत्यक्ष किये हुए अपराध मैं और आप जानते है । इस प्रकार अपराध के चार विकल्प किए ; वे सभी यहां पर समझ लेना । 'तस्स'=उस अप्रीति-विषयक और अविनय-विषयक अपराध के लिए मिच्छा मि दुक्कड' =मेरा पाप मिथ्या हो, अपने गलत आचरण का पश्चात्ताप या स्वीकार रूप प्रतिक्रमण करता हूं; (ऐसा जनशासन में पारि भाषिक वाक्य है ) 'प्रयच्छामि' अर्थात् देता हूं; यह पद अध्याहार्य समझना। 'तस्स मिच्छामि दुक्कर इस पद का दूसरा अर्थ इस तरह है- 'तस्स' अर्थात् अप्रीति और अविनय से हुमा वह मेरा अपराध "मिच्छा'-- मोक्ष-साधन में विरोध करने वाला है 'मे'=मुझको 'दुक्कर'=वह पापरूप है। इस तरह अपने दोषों की स्वीकृति रूप प्रतिक्रमण अथवा अपराध की क्षमायाचना जानना ।
पहले बंदन में आलोचना और क्षमापना के लिए वंदन करने का विधान किया है, इसके बाद 'देवसिब मालोउ' और 'अन्म दिठओ' सूत्र की व्याख्या जानना। नहीं तो उसका अवसर प्रतिक्रमण आवश्यक में आता है इस तरह द्वादशावतंवन्दनविधि पूर्ण हुई : वंदन करने से कर्मनिर्जरारूप मोक्ष होता है । कहा भी है -
__"धी गौतम स्वामी ने प्रभु महावीर भगवान् को पूछा कि 'भगवन् । वंदन करने से जीव को क्या लाभ होता है ?' भगवान ने कहा--गौतम ! ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म जो गाढ़ रूप में बांधे हों, वे कर्म वन्दन से शिथिल हो जाते हैं । लम्बे काल तक स्थिर नहीं रहते, तीव्र रस वाले हों वे कर्म मंद रस वाले हो जाते हैं, और बहुतप्रदेश वाले कर्मबन्धन किये हों, वे अल्पप्रदेश वाले हो जाते हैं। इससे अनादि-अनंत संसाररूपी अटवी में दीर्घकाल तक भ्रमण नहीं करना पड़ता।" दूसरा प्रश्न फिर पूछा"भगवन्त ! गुरु-वंदन करने से जीव को क्या फल मिलता है ?" भगवान ने कहा-'गौतम ! गुरुवंदन करने से जीव नीचगोत्रकर्म का क्षय करके उच्चगोत्रकर्म का बन्धन करता है, और अप्रतिहत-आज्ञाफल अर्थात जो गुरु की आज्ञा को खंडित नहीं करता, वह सौभाग्यनामकर्म उपार्जन करता है' "विनयोपचार