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उनके कपड़े आदि वस्तुओं क्षमा करें, कह कर शिष्य
तैतीस आशातनाएं और आलोचनापाठ
जाने पर भी क्षमा न मांगना, आशातना है । कहा भी है कि 'गुरु अथवा का शरीर से स्पर्श हो जाय अथवा आज्ञा बिना स्पर्श कर ले तो 'मेरे अपराध क्षमा मांगे, और 'आयंदा ऐसी भूल नहीं करूंगा' यों कहे ।, (३३) गुरु की शय्या संधारा, आसन आदि पर खड़े होने, बैठने या सोने से, उपलक्षण से उनके वस्त्र पात्र आदि किसी भी वस्तु का स्वयं उपयोग करे तो आशातना लगती है ।
इस प्रकार ये तैंतीस आशातनाएं पूर्ण हुई । अब पुरओपक्खासन्न इत्यादि छह गाथाएं शास्त्र में कही है, उसमें तैंतीस आशातनाओं का विधान है, उसका अर्थ उपर्युक्त विवेचन में आ गया है, इसलिए पुनः नहीं लिखते । यद्यपि ये आशाननाएं साधु के लिए कही हैं, फिर भी श्रावकवर्ग को भी ये आशातनाएं लगनी संभव है; क्योंकि प्रायः साधु की क्रिया के अनुसार ही श्रावक की अधिकांश प्रवृत्तियाँक्रियाएं होती । सुना जाना है कि 'कृष्ण वासुदेव ने द्वादशावतं वदन से अठारह हजार साधुओं को वंदन किया था । इस कारण साधु की तरह श्रावक के लिए भी ये आशाननाएं यथासम्भव समझ लेनी चाहिए ।
इस प्रकार वंदन कर अवग्रह में स्थित हो कर अतिचार की आलोचना करने का इच्छुक शिष्य शरीर को कुछ नमा कर गुरु से इस प्रकार निवेदन करे – 'इच्छाकारेण सदिसह देवसिय आलोएमि' अर्थात् आपकी इच्छा हो तो आज्ञा दीजिये कि मैं दिन में लगे हुए अतिचारों को आपके सामने प्रगट करूँ । यहाँ दिनसम्बन्धी और उपलक्षण से रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक अतिचार भी 'आलोएम' = 'आ' अर्थात् मर्यादा विधिपूर्वक अथवा सब प्रकार से और 'लोएमि' = आपके सामने खोल कर सुनाता हूं।' यहां दिन आदि की आलोचना में काल मर्यादा इस प्रकार है-दिन के मध्यभाग से ले कर रात्रि के मध्यभाग तक देवसिक और रात्रि के मध्यभाग से कर दिन के मध्य भाग तक रात्रिक अतिचारों की आलोचना हो सकती है । अर्थात् दिन या रात का प्रतिक्रमण इसी तरह हो सकता है । और पाक्षिक, चातुर्मासिक तथा सांवत्सरिक आलोचना-प्रतिक्रमण तो पद्रह दिन का, चातुर्मास का और पूरे वर्षभर का होता है। इसके बाद आलोएह' = आलोचना करो' यों गुरु के द्वारा कथित वचन का स्वीकार कर शिष्य 'इच्छ आलोएमि' कहे अर्थात् आप की आज्ञा स्वीकार करता हूं और आलोचना- क्रिया द्वारा प्रकट में करता हूँ, इस तरह प्राथमिक कथन कह कर शिठ: साक्षात् आलोचना के लिए यह पाठ बोलता है
'जो मे देवसिओ अइमरो कओ, काइओ, वाइओ, माणसिओ, उस्सुतो, उम्मग्गो, अकप्पो, अकरणिज्जो, वुझाओ, दुब्बियतिओ अणायारो अणिच्छिमध्वो असावग-पाउग्गो, नाणे तह दंसणे, परिताचरित, सुए, सामाइए, तिन्हं, गुत्तीणं, चउन्हं कसायाणं, पंचन्हमणुव्वयाणं तिन्हं, गुणध्वयाणं, चउन्ह सिक्लावयाणं, बारसविहस्स सावगधम्मस्स जं खडियं जं विराहिय तस्स मिच्छामि तुक्कड ''
सूत्र की व्याख्या 'जो मे' अर्थात् मैंने जो कोई, देवसिओ अहमारो = दिवस सम्बन्धी विधि का उल्लंघन करने के रूप में अतिचार, 'कल' किया हो, वह अतिचार भी साधनभेद से अनेक प्रकार के होते हैं । अतः कहा है- 'काइओ, वाइओ, माणसिओ' अर्थात् शरीर से, वाणी से और मन से मर्यादाविरुद्ध गलन प्रवृत्ति करने से अतिचार लगे हों, 'उत्सुतो' = सूत्रविरुद्धवचन बोलने से, 'उम्मग्गो'= क्षायोपशमिकरूप भावमार्ग का उल्लंघन करना उन्मार्ग है, अथवा आत्मस्वरूप ( क्षायोपशमिक भाव )