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बन्दनकविधि की आगमोक्त गाथाओं का अर्थ
मध्यमाग का स्पर्श न हो, इस प्रकार दोनों हाथों से बोधे की दशियों का स्पर्श करते अकार का उच्चारण करे ॥१०॥ उसके बाद दोनों हाथों को मुख की ओर घुमा कर ललाट का स्पर्श करते हुए होकार का उच्चारण करे । ।।११।। फिर दोनों हाथों से ओषे का स्पर्श करते हुए 'का' बोले और 'पकार' बोलते हुए फिर ललाट का स्पर्श कर ॥१२॥ फिर 'का' के उच्चारण करते समय तीसरी बार ओघ का स्पर्श करे और 'पकार' बोलते हुए फिर ललाट का स्पर्श करे ॥१६॥ बाद सफासं' पद बोलते हुए रजोहरण को दो हाथ और मस्तक से नमस्कार कर मस्तक ऊंचा करके दोनों हाथ जोड़ कर सुखसाता (कुशलमंगल) पूछने के लिए ॥१॥ खमणिज्जो में किलामो अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो (दिवसो, पक्खो, बरिसो बा) पदक्कतो यों बोल कर क्षणभर मौन रहे ।।१५।। जब गुरुमहाराज 'तहत्ति' कहे, तब फिर संयम. यात्रा और यापनिका (इन्द्रिय और मन को निराबाघता) पूछे ; उस समय भी पूर्ववत् दूसरी बार तीन आवत्तं करना और उसमें स्वर का योग करना ।।१६।। यहाँ प्रश्न उठता है कि मंदबुद्धि शिष्य पर अनुग्रहउपकार करने के लिए उस स्वरयोग को किस तरह स्थापन करना चाहिए? इसका उत्तर देते हैं कि 'जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम स्वर (आवाज) से युक्ति से उच्चारण करके स्थापन करना ॥१७॥ उसमें जघन्य (अनुदात्त) स्वर से रजोहरण पर, उत्कृष्ट (उदात्त) स्वर से ललाट पर और मध्यम (स्वरित) स्वर से दानों क बाच में स्थापन करना ।।१८।। अनुदात्त स्वर से 'जकार', स्वरित स्वर से 'ता' और उदात्त स्वर से 'भे' अक्षर बोले, और 'ज-ब-णि' ये तीनों अक्षर भी इसी तरह अनुदात्त आदि स्वर से बोले ॥१६॥ तीसरी बार 'जं' अनुदात्त से 'च' स्वरित स्वर से और 'में उदात्त स्वर से बोलना । इसी तरह रजोहरण पर मध्य में तथा ललाट पर स्पर्श करते हुए यथायोग्य स्वर से बोलना चाहिए ॥२०॥ प्रथम के तीन भावत क्रमश: दो-दो अक्षरों और बाद के तीन आवर्त क्रमशः तीन-तीन अक्षरों के कहे हैं ।।२१।। इस तरह आवतं का स्वरूप जान कर अब दूमर तीन आवर्त की विधि बताते हैं-दो हाथों से रजोहरण का स्पर्श करते हुए 'जकार' मध्य में 'ता' और ललाट में 'भेकार' कह कर बाद में गुरु के वचन सुनना ॥२२॥ गुरु जब 'तुम्भं पि बट्टए' कहें, तब शेष दो आवतं साथ में करके जब तक गुरु एवं' न बोले तब तक मौन रहं ॥२३।। गुरु के 'एव' कहने के बाद शिष्य रजोहरण पर दो हाथों से अञ्जलि बना कर और मस्तक लगा कर विनयपूर्वक 'खामि खमासमणो वेवसियं बइक्कम' आदि बोले ॥२४॥ बाद में जब गुरु 'महमवि खामेमि तुम' यों कह कर क्षमायाचना की सम्मति दे, तब शिष्य मावस्सिमाए' कह कर अवग्रह में से निकल जाए ॥२५।। बाद में शरीर झुका कर सभी अपराधों की क्षमायाचना करके सईदोषों की निंदा, गहा और त्याग करं । इस तरह से प्रतिक्रमण-प्रायश्चित्त करे ॥२६॥ इसी प्रकार विनयपूर्वक तीन गुप्ति से गुप्त (रक्षित) हो कर प्रथम क्षमायाचना करे, फिर उसी तरह दूसरी बार वंदन करे, उसमें भी अवग्रह की याचना, प्रवेश आदि सब पहले की तरह करे, इनमें दो वंदन, दो अवनत और दो प्रवेश होते हैं ॥२७॥ वदन के प्रथम प्रवेश में छह आवत्तं और दूसरे प्रवेश में छह आवर्त होते हैं । वहां ब हो बादि अक्षर अलग-अलग बोलने से बारह आवर्त समझना ॥२८॥ प्रथम प्रवेश में दो बार सिर झुकाना और दूसरे में भी उसी तरह दो बार सिर मकाना होता है। इससे चार सिर कहा है और एक निष्क्रमण कहा है ॥२६।तथा एक यथाजात और तीन गुप्त सहित चार होते हैं । इन चारों को शेष में मिलाने से कुल पच्चीस आवश्यक होते हैं।
___ गुरु को तैतीस माशातनाएं-तितीसन्नयराए-वन्दनसूत्र में पहले आ चुका है । गुरुसम्बन्धी उन तैंतीस आशातनाओं को विस्तार से समझाते हैं-(१) शिष्य गुरु के आगे-आगे निष्प्रयोजन चले तो विनयमंग रूप आशातना लगती है। यदि मार्ग बताना हो या किसी वृद्ध, अन्ध आदि की सहायता करने के