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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश विमर्श करने हेतु शास्त्रविनों या धर्मगुरुओं का सत्संग करना चाहिए, और गुरु-मुख से उस शास्त्र के रहस्यों को सुनने के बाद बार-बार उस पर परिशीलन, पर्याप्त चिन्तन-मनन आदि न किया जाय, तब तक वह पदार्थ भलीभांति हृदयंगम नहीं हो सकता।
ततश्च सन्ध्यासमये, कृत्वा देवार्चनं पुनः ।
कृतावश्यककर्मा च, कुर्यात् स्वाध्यायमुत्तमम् ॥१२९॥ अर्थ-उसके बाद भोजन करके संध्या-समय फिर देव-पूजा करके प्रतिक्रमण आदि षट् आवश्यक क्रिया करे, फिर उत्तम स्वाध्याय करे ।
व्याख्या-तत्पश्चात यदि दो बार भोजन करता हो तो विकाल अर्थात् शाम के समय दो घड़ी पहले भोजन करे। बाद में तीसरी बार अग्रपूजारूप देवार्चन करे। उसके बाद साधु-मुनिराज हों तो उनके दर्शन करके सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदनक, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान-लक्षण छह आवश्यक करे। सामायिक का अर्थ है-आतं-रोद्रध्यान का त्याग करके धर्मध्यान का मालम्बन ले कर शत्रु-मित्र, तृण-स्वर्ण आदि में समभाव रखना। इसका स्वरूप पहले कह चुके हैं । बाद में चौबीस तीर्थकर भगवन्तों के नामोल्लेखपूर्वक गुणों का उत्कीर्तन करना। फिर कायोत्सर्ग में मन में ध्यान करना और कायोत्सर्ग पूर्ण कर प्रगटरूप में स्पष्ट अक्षरों में उस पाठ को बोलना। इसके सम्बन्ध में भी पहले कह आये हैं । तत्पश्चात् वंदनीय धर्माचार्य को पच्चीस आवश्यक-विशुद्ध ; बत्तीस दोष-रहित नमस्काररूप वंदन करना। इसमें पच्चीस आवश्यक इस प्रकार से जानना-वंदन में दो अवनमन ; एक यथाजात, बारह आवर्त, चार मस्तक से. तीन गप्ति से. दो प्रवेश और एक निष्क्रमण : ये पच्चीस अवश्य करने योग्य आवश्यक हैं। इसमें दो अवनमन हैं-स्वयं को वंदन करने की इच्छा और गुरुमहाराज को प्रकटरूप में निवेदन-इच्छामि समासमणो ! बंदिजावणिज्जाए निसीहिलाए' अर्थात्- 'हे क्षमाश्रमण ! मैं अपनी शक्ति अनुसार निष्पापरूप से आपको वंदन करना चाहता हूँ। ऐसा कहते समय मस्तक और शरीर के उच्चभाग को कुछ नमाना ; अवनत या अवनमन कहलाता है (१) फिर आवर्त करके पुनः वापिस आए, तब भी 'इच्छामि' इत्यादि सूत्र बोल कर फिर इच्छा बताए, तब (२) दूसरा यमाजात अर्थात् जन्म के समान, जन्म दो प्रकार का गिना जाता है-एक तो माता के उदर से जन्मग्रहण और दूसरा दीक्षा ग्रहण करते समय । प्रसवकालिक मुद्रा के समान दो हाथ जोड़ कर मस्तक पर रखे हों, उसी तरह दीक्षा ग्रहण के समय भी रजोहरण मुखवस्त्रिका वाले दो हाथ जोड़ कर जिस स्थिति में जन्म होता है, वही मुद्रा (स्थिति) गुरुमहाराज को वंदन करते समय होनी चाहिए। यह बदन यथाजात कहलाता है (३) तथा बारह मावर्त-गुरुमहाराज को द्वादशावर्त वंदन करते समय गुरुचरणों में तथा अपने मस्तक पर हाथ से स्पर्श करके प्रथम प्रवेश कर 'महो कायं' इत्यादि सूत्र उच्चारण करते हुए छह भावतं करना ; फिर दूसरी बार प्रवेश करे, तब भी दूसरी बार छह आवर्त करना. इन दोनों के मिला कर बारह मावर्स होते हैं। (१५) बस्सिर-जिसमें चार बार मस्तक नमाना पड़ता है, प्रथम वंदन में शिष्य द्वारा 'इच्छामि घमासमणों' नोलते मस्तक नमाना, बाद में गुरु भी 'अहमवि बामेमि' ऐसा उत्तर देते हुए कुछ सिर नमाते हैं, इस तरह गुरु-शिष्य दोनों का मस्तक नमाना, इसी प्रकार दूसरी बार वंदन मिल कर कुल चार मस्तक नमाना (१९) त्रिगुप्त-मन, वचन और काया के योग से एकाग्रतापूर्वक वंदन करना ; इस तरह तीन वंदन (२२) दुप्पवेस गुरुमहाराज के आसन से प्रत्येक दिशा में साढ़े तीन हाथ तक के स्थान का गुरु-अवग्रह होता है । अतः दूर रह कर गुरु का विनय करना, फिर