________________
नमोत्युणं (शक्रस्तव) की व्याख्या
'सरणबयाणं' अर्थात् शरण को देने वाले भगवान् को नमस्कार हो, भय से पीड़ित का रक्षण करना शरण देना कहलाता है। इस संसाररूपी भयंकर अटवी में अतिप्रबल-रागद्वेषादि से पीड़ित जीवों की आत्माएं दुःख-परम्परा से होने वाले चित्तसंक्लेश से मूढ़ हो जाती हैं । उन आत्माओं को भगवान् तत्वचिन्तनरूप अध्यवसाय का सुन्दर आश्वासन देते हैं ; इसलिए वे शरण-आधाररूप है । दूसरे आचार्य कहते हैं-विशेष प्रकार से तत्व जानने की इच्छा ही शरण है। इस तत्वचिन्तन का अध्यवसाय ही जीव को तत्त्व की प्राप्ति होने में कारणरूप हैं। (१) तत्त्वश्रवण की इच्छा, (२) तत्त्व का श्रवण, (३) तत्त्व का ग्रहण, (४) तत्त्व का हृदय में धारण, (५) इससे विशिष्ट ज्ञान (विज्ञान) की प्राप्ति, (६) विज्ञान से विचार-तर्क करना, (७) तत्त्व का निर्णय करना और (८) तत्त्व के प्रति दृढ़ आस्था रखना ; ये बुद्धि के आठगुण तत्त्वचिन्तन के अध्यवसाय से प्रगट होते हैं। यदि तत्त्वचिन्तन का अध्यवसाय न हो तो ये गुण प्रगट नहीं होत, अपितु गुणों का आभास होता है ; जिमसे आत्मा का कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। अतः अनेक दुःखों से किंकर्तव्यविमूढ़ बने हुए जीव को आश्वासन देने वाली और बुद्धि के गुणो को प्रकाशित करने वाली तत्त्वचिन्तारूपी शरण भगवान् से ही प्राप्त होती है। इसलिए भगवान् शरणदाता है । तथा बोहिदयाणं अर्थात् बोधिदाता भगवान् को नमस्कार हो । बोधि का अर्थ है-श्री जिनश्वर-प्रणीत धर्म की प्राप्ति होना। बोधि यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन व्यापारों के सामथ्यंयोग से होती है। पहले कभी भेदन नहीं की हुई रागद्वेष की ग्रन्थी (गांठ) के भेदन करने से ; प्रशम, सवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य रूप पांच लक्षणों के प्रगट होने से जीव को तत्त्वार्य-श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। अन्य आचार्यों ने 'बोधि' को 'विज्ञप्ति' कहा है। अभय, चक्षु, मार्ग, शरण और बोधि ये पांचों अपुनबंन्धक को प्राप्त होते हैं । जब पुनर्बन्धन के कारण पांचों अपने यथार्थरूप में प्रगट नहीं होते, तब भगवान इन पांचों अपुनर्बन्धक भावों का दान देते हैं। ये पांचों भाव उत्तरोत्तर पूर्व-पूर्व के फलरूप हैं । वह इस प्रकार से है-अभयदान का फल चक्ष की प्राप्ति, चक्ष का फल सम्यकमार्ग की प्राप्ति, मार्ग का फल शरण की प्राप्ति और शरण का फल बोधि-(सम्यदृष्टि) की प्राप्ति है । यह बोधिबीज भगवान से प्राप्त होता है । अतः भगवान् बाधिदाता हैं । इसप्रकार भगवान् अभयदाता, चक्षुदाता, मार्गदाता, शरणदाता और बोधिदाता हैं। अतः पूर्वकथनानुसार उपयोगमंपदा की सिद्धि हुई । अब 'स्तोतव्यसंपदा' की ही विशिष्ट उपयोगरूपसंपदा बताते हैं
'धम्मवयाग, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंतचाकवट्टोणं' 'धम्मवयागं' का अर्थ है-धर्म के दाता भगवान् को नमस्कार हो। यहां धर्म का अर्थ चारित्र-(विरति) रूप धर्म लेना चाहिए । और वह धर्म साधुधर्म और श्रावकधर्म के भेद से दो प्रकार का है। साधुधर्म सर्वमावद्य (पापकारी) व्यापार के त्यागरूप है, पाप का आंशिकरूप से त्यागरूप देशविरतिश्रावकधर्म है। इन दोनों धर्मों को बताने वाले भगवान् ही हैं। उन्हीं से ही धर्म मिल सकता है। अन्य हेतु होने पर भी विरतिधर्म की प्राप्ति में प्रधानहेतु भगवान् ही हैं, इस कारण भगवान् को धर्मदाता कहा है। धर्मदाता धर्मदेशना के देने से होता है. अन्य कारण से नहीं, इसलिए कहते हैं -'धम्मवेसय.' यानी धर्म का उपदेश देने वाले भगवान् को नमस्कार हो । पहले कहे अनुसार दो प्रकार के विरतिधर्म के उपदेष्टा भगवान् का उपदेश कदापि निष्फल नहीं जाता ; प्रत्युत भलीभांति सफल होता है। क्योंकि भगवान् जीव को योग्यतानुसार उपदेश देते हैं । अतः भगवान् सच्चे धर्मोपदेशक हैं । तथा 'धम्मनायगार्ग' अर्थात धर्म के नायक (स्वामी) भगवान को नमस्कार हो। पहले कहे अनुसार चारित्रधर्म के स्वामी भगवान् ही हैं ; क्योंकि उन्होंने धर्म को आत्मसात् किया है ; उन्होंने उस धर्म का पूर्ण रूप से उत्कृष्ट