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इरियावहिया पाठ पर व्याख्या
३३७ वनस्पतिकाय वाले। 'बेइंबिया' अर्थात् स्पर्श और जीभ हो वह दीन्द्रिय जीव है। जैसे केंचुआ शंख आदि । 'तेइंगिया' अर्थात् जिसके स्पर्श, जीभ और नासिका हो वह त्रीन्द्रिय जीव है ; जैसे चींटी, खटमल आदि 'चरिबिया' अर्थात् जिसके स्पशं, जीभ, नासिका और आँखें हो वह चतुरिन्द्रिय जीव है ; जैसे भौंरा, मक्खी आदि, 'पचिदिया' अर्थात् जिनके स्पर्श, जीभ, नासिका, आँख और कान हो वे नारक, तियंच, मनुष्य और देव पचेन्द्रिय जीव है । जैसे पशु, पक्षी, चूहा आदि तिर्य वजीवों को विराधना की हो । उस विराधना के दम भेद कहते हैं - 'अभिहया' अर्थात् सम्मुख आते हुए पैर से ठुकराया हो या पैर से उठा कर फेंक दिया हो, 'वत्तिया' अर्थात् एकत्रित करना अथवा ऊपर धूल डाल कर ढक देना, 'लेसिया' अर्थात् उन्हें आपस में चिपकाना, जमीन के साथ घसीटना या जमीन में मिला देना, 'संघाइया' अर्थात परस्पर एक दूसरे पर इकट्ठे करना, एक में दूमरे को फंसा देना ; संघट्टिया' अर्थात् स्पर्श करना अथवा आपस में टकराना । 'परियाविया' अर्थात् चारों तरफ म पीड़ा दी हो; 'किलामिया' अर्थात् मृत्यु के समान अवस्था की हो 'उद्दविया'-अर्थात् उद्विग्न. भयभ्रान्त कर दिया हो ; 'ठाणामो ठाणं सकामिया' अर्थात् अपना स्थान छुड़ा कर दूसरे स्थान पर रखे हों. 'जोवियाओ ववरोविया' अर्थात् जान से खत्म कर दिया हो, 'तस्स' अर्थात अभिहया से ले कर दम प्रकार से जीवों को दुःखी किया हो, उस विराधना के पाप से मेरा आत्मा लिप्त हुआ हो तो उस पाप की शुद्धि के लिए 'मिच्छामि दुक्का' अर्थात् वह मेरा पाप मिथ्या निष्फल हो अथवा नष्ट हो । 'मिच्छामि दुक्कड' पद की उसमें गभित अर्थों सहित व्याख्या आवश्यक-नियुक्तिकर्ता पूर्वाचार्य प्रत्येक शब्द का पृथक्करण करते हुए इस प्रकार करते हैं -
मित्ति मिउमद्दवत्ये छत्तिय दोसाण छायणे होइ । मित्ति अमेराए ठिो दुत्ति दुगछामि अप्पाणं ॥१॥ कत्ति कर मे पावं रत्ति य डेवेमि तं उसमेणं ।
एसो मिच्छा - दुक्कर - पयक्खरत्यो समासेणं ॥२॥ अर्थ--"मि - ज्छा - मि - दु-क -.' ये छह अक्षर हैं। उनमें प्रथम 'मि' में गर्मित अर्थ है -- मार्दव अथवा नम्रता, शरीर और भाव से, दूसरा अक्षर 'छा' है, जिसका गभित अर्थ है जो दोष लगे हैं, उनका छादन करने के लिए, और पुनः उन दोषों को नहीं करने की इच्छा करना । तीमरा अक्षर 'मि' है, उसका गर्भित अर्थ है मर्यादा, चारित्र की आचार-मर्यादाओं में स्थिर बन कर, चौथा शब्द
करना, अपनी पापमयी आत्मा की निंदा करना, पांचवां शब्द 'क' अर्थात, अपने कृत पापों की कबूलात के साथ और छठा शब्द 'ड' अर्थात डयन=उपशमन करता हूं। इस तरह 'मिच्छामि दुक्कडं' पद के अक्षरों में गर्भित अर्थ संक्षेप में होता है।
इस प्रकार आलोचना एवं प्रतिक्रमणरूप दो प्रकार के प्रायश्चित्त का प्रतिपादन करके, अब कायोत्सर्गरूप प्रायश्चित्त की इच्छा से निम्नोक्त सूत्रपाठ कहा जाता है । 'तस्स उत्तरीकरणं पायच्छित्त करणेणं विसोहीकरणेणं विसल्लोकरणेणं पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए ठामि काउस्सग्गं ।
TOT
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