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निर्दोष स्तोत्र का लक्षण और दोषयुक्त स्तोत्रों के नमूने
एवं अपने पापनिवेदनपरक, चित्त को एकाग्र कर देने वाला, आश्चर्यकारी अर्थयुक्त, अस्खलित, आदि गुणों से युक्त, महाबुद्धिशाली कवियों द्वारा रचित स्तोत्र हो । उससे प्रभु की स्तुति करनी चाहिये, परन्तु निम्न प्रकार के दोषयुक्त स्तोत्र आदि नहीं बोलने चाहिए। जैसे कि
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'ध्यानमग्न होने से एक आंख मूंदी हुई है और दूसरी आँख पार्वती के विशाल नितम्ब - फलक पर शृंगाररस के भार से स्थिर बनी हुई है। तीसरा नेत्र दूर से खींचे हुए धनुप की तरह कामदेव पर की हुई क्रोधाग्नि से जल रहा है। इस प्रकार समाधि के समय में भिन्न रसों का अनुभव करते हुए शंकर के तीनों नेत्र तुम्हारी रक्षा करे ।' तथा 'पार्वती ने शंकर से पूछा आपके मस्तक पर कौन भाग्यशाली स्थित है ? ' तब शंकर ने मूलवस्तु को छिपा कर उत्तर दिया – 'शशिकला ।' फिर पार्वती ने पूछा - 'उसका नाम क्या है ?' शंकर ने कहा – 'उसका नाम भी वही है'। पार्वती ने पुनः कहा - ' इतना परिचय होने पर भी किस कारण से उसका नाम भूल गये ? मैं तो स्त्री का नाम पूछती हूँ । चन्द्र का नाम नहीं पूछती !' तब शंकर ने कहा - यदि तुमको यह चन्द्र प्रमाण न हो तो अपनी सखां विजया से पूछ लो कि मेरे मस्तक पर कौन बैठा है ?" इस तरह कपट से गंगा के नाम को छिपाने चाहते हुए शंकर का कपटभाव तुम्हारी रक्षा के लिए हो ।" तथा "प्रणाम करते हुए कापायमान बनी पार्वती के चरणाग्ररूप दशनखरूपी दर्पण में प्रतिबिम्बित होते हुए दस और स्वयं मिल कर ग्यारह देहो को धारण करने वाले रूद्र को नमन करो ।" तथा कार्तिकेय ने पार्वती से पूछा - 'मेरे पिता के मस्तक पर यह क्या स्थित है ? उत्तर मिला -- चन्द्र का टुकड़ा है।' और 'ललाट में क्या है ?' 'तीसरा नेत्र है ।' 'हाथ में क्या है ?' 'सर्प है।' इस तरह क्रमशः पूछते-पूछते शिवजी के दिगम्बर होने के संबन्ध में पूछने पर कार्तिकेय को बांये हाथ से रोकती हुई पार्वतीदेवी का मधुर हास्य तुम्हारी रक्षा करे।" और भी देखिए - "सुरतक्रीड़ा के अन्त में शेषनाग पर एक हाथ को जोर से दबा कर खड़ी हुई और दूसरे हाथ से वस्त्र को ठीक करके बिखरे हुए केश की लटों को कंधों पर धारण करती हुई उस समय मुखकान्ति से द्विगुणित शोभाधारी, स्नेहास्पद कृष्ण द्वारा आलिंगित एवं पुनः शय्या पर अवस्थित बलस्य से सुशोभित बाहु वाला लक्ष्मी का शरीर तुम्हें पवित्र करे ।"
उपर्युक्त श्लोक में सम्पूर्ण वन्दनविधि समझाई गई है। जैसे - ( १ ) तीन स्थान पर निसीहि, (२) तीन बार प्रदक्षिणा, (३) तीन बार नमस्कार, (४) तीन प्रकार की पूजा, (५) जिनेश्वर की तीन अवस्था की भावना करना, (६) जिनेश्वर को छोड़ कर शेष तीनों दिशाओं में नहीं देखना, (७) तीन बार पैर और जमीन का प्रमार्जन करना, (८) वर्णादि तीन का आलंबन करना, (९) तीन प्रकार की मुद्रा करना और (१०) तीन प्रकार से प्रणिधान करना । दस 'त्रिक' कहलाते हैं। इसमें पुष्प से अंगपूजा, नैवेद्य से अग्रपूजा और स्तुति से भावपूजा इस तरह तीन प्रकार की जिनपूजा बताई है। तथा इस समय जिनेन्द्रदेव की छद्मस्थ, केवली और सिद्धत्व इन तीनों अवस्थाओं का चिन्तन करना होता है । चैत्यवंदन - सूत्रों का पाठ, उनका अर्थ और प्रतिमा के रूप का आलंबन लेना; यह वर्णादित्रिक का आलंबन कहलाता है । मन वचन काया की एकाग्रता करना यह तीन प्रकार का प्रणिधान कहलाता है । स्तवन बोलते समय योगमुद्रा, वंदन करते समय जिनमुद्रा तथा प्रणिधान - ( जय वीयराय ) सूत्र बोलते समय मुक्ताशुक्ति मुद्रा, ये तीन मुद्राएं कही हैं। नमस्कार पांच अंगों से होता है—दोनों घुटने, दोनों हाथ और पाँचवाँ मस्तक ये पांचों अंग जमीन तक नमाना, पंचांग प्रणाम कहलाता है । दोनों हाथों की दसों अंगुलियाँ एक दूसरे के बीच में रख कर कोश जैसी हथेली का आकार बना कर, दोनों हाथों की