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________________ ३१० योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश चुकाने की दृष्टि से अनाज या धन देने आया, अथवा कोई भेंट रूप में देने आया हो, और उक्त व्यापारी यह सोच कर उसे ले लेता है, कि मेरे नियम के अनुसार इसका परिमाण बढ़ जाता है, और मेरा नियम अमुक महीने तक का है ; उसके बाद इसे स्वीकार कर लूगा; अभी घर के एक कोने मे या किसी अन्य व्यक्ति के यहां सुरक्षित रखवा दूंगा अथवा मेरे यहां से यह चीज कुछ बिक जायगी, उसके बाद इसे ले लूगा । इस मंशा से देने वाले से कहे कि 'अमुक महीने के बाद ले आना, ले लगा।' अथवा उस चीज को अच्छी तरह पैक करके रस्सी से बांध कर देने वाले के नाम से अमानत के तौर पर रख ले, फिर जब अपने नियम की मियाद (अवधि) पूरी हो जाय तव लेने का निश्चय करे। इस प्रकार का बन्धन (शर्त या निश्चय अथवा बांध) करके निश्चित परिमाण से अधिक धन या धान्य घर में रख ले और यह माने कि 'यह तो उसका है, मेरा नहीं है ; इत्यादि व्रतपालन की अपेक्षा से व्रत का सर्वथा भंग नहीं होता, लेकिन प्रथम अतिचार लगता है। इसी प्रकार कुप्य संख्या का अतिक्रम भाव से होता है ; जैसे किसी सद्गृहस्थ ने यह नियम लिया कि मैं इतने से अधिक अमुक गृहोपयोगी सामान (कुप्य) नही रखूगा । मान लो, नियम लेने के बाद वही चीज किसी से नजराने में, इनाम में या उपहार में मिल गई, इस कारण संख्या में दुगुनी हो गई। अव वह अपने व्रतभंग हो जाने के डर से इस भाव से गेड़फोड़ कर निश्चित संख्या की पूर्ति के लिए दो-दो को मिला कर एक बड़ी चीज बना या बनवा लेता है, अथवा उसकी पर्याय आकृति या डिजाइन) बदल कर उसकी संख्या कम कर लेता है ; परन्तु वास्तव में उसके मूल्य-प्रमाण में वृद्धि हो जाने से व्रत का आंशिक भंग होता है । अथवा भाव से व्रतपालन का इच्छुक होने के कारण उक्त प्रमाणातिरिक्त चीज नियमभंग हो जाने के भय से उस समय तो ग्रहण नहीं करता.लेकिन देने वाले से कहता है- 'अमुक समय के बाद मैं इन्हें अवश्य ले लूगा, तब तक तुम मेरे नाम से अमानत रख देना; मेरे सिवाय दूसरे किमी को इन्हें मत देना;" इस प्रकार वह दूसरे को नहीं देने की इच्छा से अपने लिए संग्रह कराता है, इस दृष्टि से उसे अतिचार लगता है । इसी तरह गाय, भैंस, घोड़ी आदि रखने की अमुक अवधि तक सख्या निश्चित की ; लेकिन नियत समय क अंदर ही गाय, भैस आदि के प्रसव हो जाने से उसकी संख्या बढ़ गई, तो उसे इस कारण द्विपदचतुष्पदातिक्रम नामक अतिचार लगता है। किसी ने एक या दो साल के लिए गाय, भैंस आदि अमुक पशु अमुक समय तक अमुक संख्या से अधिक न रखने का नियम किया हो, फिर यह सोचे कि जितने समय तक का मेरे नियम है, उतने समय में अगर गाय, भैंस आदि के गर्भ रह गया तो मेरी नियत संख्या की मर्यादा भग हो जायगी ; अतः उन गाय, भैंस आदि को काफी अर्से के बाद गर्भधारण करावे ; ऐमा करने से गर्भ में बछड़ों के आने से संख्या तो बढ़ ही जाती है, इस दृष्टि से भी अंशत. व्रतमंग होता है ; किन्तु बाहर से प्रत्यक्ष में संख्यातिक्रमण नहीं दिखाई देने से वह मानता है -'मेरे नियमानुसार इन पशुओं की संख्या नही बढ़ी ; इसलिए मेरा नियम खडित नहीं हुआ। इस अपेक्षा से भंगाभंग होने से तृतीय अतिचार लगता है। इसी प्रकार क्षेत्र या वास्तु की जितने योजन तक की सीमा निश्चित की हो, उसके आगे की जमीन मिलती हो, तो उसे नियम की अवधि तक अमानत के तौर पर अपने नाम से सुरक्षित रखवा देना अतिक्रम है । अथवा योजन का अर्थ जोड़ना भी होता है । इस दृष्टि से कर्जदार से या भेंट रूप में मिलने अथवा पड़ोसी के मकान या खेत को खरीद लेने के कारण मकानों और खेतों की निश्चित की हुई संख्या बढ़ जाने से नियम न टूटे इम अपेक्षा से दो या कई मकानों या खेतों को आपस में मिला देना-बीच में मीमासूचक दीवार, बाड़ या खंभे तोड़ कर या तुड़वा कर दोनों को संयुक्त करके एक मकान या खेत बना देना; ऐमी समझ से
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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