________________
भोगों के अथाहसमुद्र में डूबा हुआ शालिभद्र त्याग की ओर
२९५
के बंदी-सी घबराहट महसूस कर रहा था। उसके शरीर मे राजा के स्पर्श से पसीना छूटने लगा, आंखों से आंसू टपकने लगे।" यह देख कर भद्रा ने राजा में कहा - "देव ! अब इसे छोड़ दीजिए। क्योंकि मनष्य होकर भी यह अत्यन्त कोमल है। यह इतना नाजक है कि जरा-सा भी खर्दरा स्पर्श तथा मनष्य की पष्पमाला की गन्ध तक भी नहीं सह सकता । देवलोक में गये हए इसके पिता प्रतिदिन इसके और इसकी पत्नियों के लिए वहाँ से दिव्य वस्त्र, आभपण एवं विलेपन आदि पदार्थ भेजते हैं। यह सुनते ही राजा ने शालिभद्र को छोड़ दिया। वह वहाँ से छूट कर सीधा सातवीं मजिल पर अपने महल में पहुंच गया । भद्रा ने श्रेणिक राजा से अपने यहाँ भोजन करने की प्रार्थना की। भद्रा के दाक्षिण्य एव विनय से प्रभावित होकर राजा ने उसकी प्रार्थना स्वीकार की। भद्रा ने अपने सेवक-सेविकाओं को आदेश देकर सभी प्रकार की उत्तमोत्तम भोजनसामग्री झटपट तैयार करवाई । धनाढ्यों का कौन-सा काम ऐसा है, जो धन से सिद्ध नहीं होता ?" इधर उसने तेलमालिश एव स्नान कराने में कुशल सेवकों को आदेश दे कर सुगन्धचूर्णमिश्रित बढ़िया तेल की मालिश करवाई, फिर स्नान करवाया । स्नान करते समय राजा की अंगुली से अंगूठी जलक्रीड़ावापिका में गिर पड़ी। राजा उसे इधर-उधर टू ढने लगे । भद्रा ने यह स्थिति देख कर फौरन दासी को उम वापिका से दूसरी वापिका में पानी खाली करन का आदश दिया । वापिका के खाली होते ही राजा की काली श्याह-सी अगूठी दूसरे आभूषणा के साथ दिखाई दी। राजा यह देख कर और भी आश्चर्य में पड़ गया। विस्मित हो कर राजा ने दासी से पूछा-“य सब क्या हैं ?" दासी ने सविनय उत्तर दिया "देव ! शालिभद्र और उसकी पत्नियाँ नहा धो कर प्रतिदिन नये आभूषण पहनते हैं और पुराने आभूषणों को इसम डाल देत हैं।" राजा ने विस्मयविमुग्ध हो कर सोचा-- "शालिभद्र सर्वथा धन्य हैं, मैं भी धन्य हूं कि मेरे राज्य में ऐसे भाग्यशाली भी हैं।" तत्पश्चात् राजा ने सपरिवार वहाँ भोजन किया । तदन्तर भद्रामाता ने अद्भुत चमकीले वस्त्राभूषण आदि भेंट दे कर ससम्मान राजा को विदा दी। राजा श्रेणिक भो अत्यन्त प्रभावित हो कर वहाँ से राजमहल को लौटा।
इघर शालिभद्र विरक्त होकर घरबार छोड़ने का विचार कर रहा था। इसी दौरान उसका एक धर्ममित्र आया और नम्रनिवेदन करने लगा - 'सुरासुरवन्दित, साक्षात् धममूर्ति चारज्ञान के धनी धर्मघोष मुनिवर इस नगर के बाहर उद्यान में पधारे हैं।" शालिभद्र सुन कर अत्यन्त हषित हुभा और रथ में बैठ कर उनके दर्शनार्थ पहुंचा । वह आचार्य धर्मघोष तथा अन्य मुनियों के चरणों में वन्दना-नमस्कार करके उपदेश-श्रवण के लिए उनके सामने बैठा। उपदेश के बाद शालिभद्र ने उनसे सविनय पूछा"भगवन् ! कौन-सा ऐसा उपाय है, जिससे मेरे सिर पर दूसरा कोई स्वामी न रहे ?' आचार्यश्री ने कहा -"मुनिदीक्षा ही ऐसा उपाय है, जिससे सारे जगत् का स्वामित्व प्राप्त किया जा सकता है।" 'नाथ ! यदि ऐसा ही है तो मैं अपनी माताजी से आज्ञा प्राप्त करके मुनिदीक्षा ग्रहण करूंगा।" इस प्रकार शालिभद्र ने जब कहा तो उत्तर में आचार्यश्री ने कहा - "तो बस, इस कार्य में जरा भी प्रमाद न करो।" शालिभद्र वहां से सीधा घर आया और अपनी माता को नमस्कार करके कहा-'माताजी ! आज मैंने धर्मघोष आचार्य के श्रीमुख से जगत् के दुखों से मुक्ति का उपायभूत धर्म सुना है !" "वत्स ! धर्मश्रवण करके तूने अपने कान पवित्र किये ! बहुत अच्छा किया। ऐसे ही धर्मात्मा पिता का तू पुत्र है।" इस प्रकार माता ने प्रशंसात्मक शब्दों में धन्यवाद दिया । शालिभद्र ने माता से कहा-'माताजी ! यदि ऐसा ही है और मैं उस धर्मात्मा पिता का पुत्र हूँ तो आप मुझ पर प्रसन्न हो कर आशीर्वाद दें, ताकि दीक्षा ग्रहण करके मैं स्वपरकल्याण कर सकू।" माता ने अधीर हो कर कहा-'पुष ! तेरे लिए अभी तो श्रावक