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योग का अद्भुत माहात्म्य और (३) अपने अनुभव से। इन तीनों प्रकारो योगशब्द का निर्णय कर इम 'योगशास्त्र' की रचना की जा रही है। इसी बात को बताने के लिए कहते हैं कि 'आगमरूपी समुद्र से, अपने गुरुजनों के मुख से और स्वानुभव से निर्णय कर यह योग-शास्त्र रचा जा रहा है। यही बात इस ग्रन्थ के अन्त में कहेंगे ।" शास्त्र से, गुरु के मुख से और अपने अनुभव से जो कुछ मैंने जाना है, वह योग का उपनिषद् विवेकियों की परिषद् के चित्त को चमत्कृत करने वाला है। अतः चौलुक्यवंश के राजा कुमारपाल की अत्यन्त प्रार्थना से आचार्य भगवान् श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरजी ने वाणो के माध्यम से इस योगशास्त्र की रचना की है। अब योग का ही माहात्म्य बताते हैं : --
योग. सर्वविपद्वल्ली-विताने परशुः शितः । अमूलमन्त्रतन्त्रं च, कार्मणं निर्व तिप्रिय. ॥५॥
अर्थ योग सर्व-विपत्तिरूप लताओं के समूह को काटने के लिए तीखोधार वाला कुठार है तथा मोक्ष-लक्ष्मी को वश करने के लिये यह जड़ी-बटी, मंत्र और तंत्र से रहित कार्मण वशोकरण है।
आशय योग अध्यात्मिक, भौतिक, दैविक सर्व-विपत्तिरूपी लतासमूह का छेदन करने के लिए तीक्ष्ण परशु के समान है। वह अनर्थफल का नाश करता है। उत्नरार्द्ध के आधे श्लोक से योग से परम पुरुषार्थरूप मोक्ष-लक्ष्मी की प्राप्ति बताई है । जगत् में कार्मण (जादू) करने के लिए जड़ी-बूटी, मन्त्रतन्त्र की विधि करनी पड़ती है, परन्तु योग जड़ी-बूटी, मंत्र और तंत्र के बिना ही मोक्ष-लक्ष्मी को वश में करने का अमोघ उपाय है।
__ कारण को दूर किये बिना विपत्तिरूप कार्य का नाश कैसे हो हो सकता है ? इसी हेतु से कारणभूत पापों का नाश करने वाले योग के बारे में कहते हैं :
भयांसोऽपि हि पाप्मानः प्रलयं यान्ति योगतः । चण्डवाताद् घनघना घनाघनघटा इव ॥६॥
अर्थ प्रचंड वायु से जैसे घने बादलों की श्रेणी बिखर जाती है, वैसे ही योग के प्रभाव से बहुत से पाप भो नष्ट हो जाते हैं।
प्रश्न होता है कि एक जन्म में उपाजित किये हुए पाप योग के प्रभाव से कदाचित् नष्ट हो सकते हैं; किन्तु जन्म-जन्मान्तर में उपाजित अनेक पापों का विनाश योग से कैसे हो सकता है ? इसी के उत्तर में कहते हैं
क्षिणोति योगः पापानि, चिरकालाजितान्यपि । प्रचितानि यथैधांसि क्षणादया रक्षणिः ॥७॥