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श्रमणोपासक के लिए साधुसाध्वियों को आहारादि दान देने का महत्त्व
२८९ और जानना चाहिए। साधुमुनिराज के घर पधार जाने पर श्रावक स्वयं अपने हाथ से उन्हें आहारपानी दे कर लाभ ले । यदि घर में दूसरा कोई आहार दे रहा हो तो स्वयं आहार का बर्तन ले कर तब तक खड़ा रहे ; जब तक गुरुदेव आहार न ले लें। साधु को भी चाहिए कि भिक्षा में पश्चातकर्म-अर्थात् बाद में दोष न लगे, इसलिए गृहस्थ के बर्तन में से सारी की सारी वस्तु न ले; कुछ शेष रखे। उसके बाद गुरुओं को वन्दन करके कुछ कदम तक उनके साथ चल कर उन्हें पहुंचा कर आए, फिर स्वयं भोजन करे । यदि उस गांव में साधुमुनिराज का योग न हो तो भोजन के समय साधुमुनिराजों के आने की दिशा में दृष्टि करे और विशुद्धभाव से चिन्तन करे कि "यदि साधु-भगवन्त होते तो मैं उन्हें आहार दे कर कृतार्थ होती (होता) :" यह पौषध को पारित (पूर्ण) करने की विधि है। अगर पोषध न किया हो तो भी सुज्ञश्रावक-श्राविका प्रतिदिन साधुसाध्वियों को कुछ न कुछ दान दे कर फिर भोजन करते हैं । अथवा भोजन करने के बाद भी दान देते हैं। इस सम्बन्ध में कुछ श्लोक हैं, जिनका अर्थ यहाँ प्रस्तुत किया जाता है
___"श्रमणोपासक के लिए अन्न, वस्त्र, जल आदि साधुसाध्वियों के योग्य एवं धर्मसहायकसंयमोपकारक वस्तुओं का ही दान देने को कहा गया है ; सोना, चांदी आदि जो वस्तुएं धर्मसहायक न हों, जिनके देने से काम, क्रोध, लोभ, अहंकार आदि बढे, चारित्र का नाश हो, ऐसी वस्तुएं साधुसाध्वियों को कदापि नहीं देनी चाहिए। जिस जमीन को खोदने से अनेक जीवों का संहार होता है, ऐसी पृथ्वी के दान की करुणापरायण लोग प्रशंसा नहीं करते । जिन शस्त्रों से महाहिंसा होती है, उन शस्त्रों के कारणरूप लोहे का दान श्रावक क्यों करेगा? जिसमें हमेशा अनेक समूच्छिम सजीव स्वतः पैदा होते हैं और मरते हैं, ऐसे तिल के दान की अनुमोदना कौन करेगा ? अफसोस है, लौकिक पर्वो के अवसर पर पुण्यार्जन-हेतु मौत के मुंह में पड़ी हुई अर्धप्रसूती गाय का जो दान करता है, उसे धार्मिक कहा जाता है। जिसकी गुदा में अनेकों तीर्थ माने हैं, जो मुख से अशुचिपदार्थों का भक्षण करती है, उस गौ को परमपवित्र मानने वाले अज्ञानी धर्म के हेतु गोदान करते हैं। जिस गाय को दुहते समय, सदा उसका बछड़ा अत्यन्त पीड़ित होता है, और जो अपने खुर आदि से जन्तुओं का विनाश कर डालती है, उस गाय का दान देने से भला कौन-सा पुण्य होगा ? स्वर्णमयी, रजतमयी, तिलमयी और घृतमयी विभिन्न गायें बना कर दान देने वाले को भला क्या फल मिलेगा? कामासक्ति पैदा करने वाली, बन्धुस्नेहरूपी वृक्ष को जलाने के लिए दावानल के समान, कलियुग की कल्पलता, दुर्गति के द्वार की कुंजी के समान, मोक्षद्वार को अर्गला के तुल्य, धर्मधन का हरण करने वाली, आफत पैदा करने वाली कन्या का दान दिया जाता है; और कहा जाता है कि वह कन्यादान कल्याण का हेतु होता है ।' भला यह भी कोई शास्त्र है ? विवाह के समय मूढ़मनुष्य वरकन्या को लौकिक प्रीति की दृष्टि से नहीं, अपितु धर्मदृष्टि से जो वस्त्राभूषण आदि दानरूप में देते हैं, क्या वेधर्मवद्धक होते हैं ? वास्तव में धर्मबुद्धि से किया गया ऐसा दान तो राख में घी डालने के समान समझना चाहिए । संक्रान्ति, व्यतिपात, वैधृति, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्वो पर जो उदरम्भरी, लोभी, अपने भावुक यजमानों से दान दिलाते हैं. वह तो सिर्फ भोले-भाले लोगों को ठगने का-सा व्यापार है । जो मन्दबुद्धि लोग अपने मृत स्वजन की तृप्ति के लिए उनके नाम से दान करतेकराते हैं, वे भी मूसल में नये पत्ते अंकुरित करने (फूटने) की इच्छा से उसे पानी सींचते हैं। यहां ब्राह्मणों को भोजन कराने से यदि परलोक में पितरों की तृप्ति हो जाती हो तो फिर यहां एक के भोजन करने से दूसरे की तृप्ति या पुष्टि क्यों नहीं हो जानी ? पुत्र के द्वारा दिया हुआ दान यदि उसके मृत पिता आदि