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साधुसाध्वी को आहार की तरह वस्त्रपात्र-आवासादि देने एवं उनके द्वारा लेने का महत्व २८७ धानीवश कदाचित् भिक्षा में कोई सड़े गले चावलों आदि का ओसामण या पानी आ गया हो तो उन्हें सखपूर्वक (आसानी से) यतनास पात्र में लेकर परठान हेत पात्रका रखना लाभदायक है। कहा भी है'जिनेश्वर भगवान ने पट्काय के जीवों की रक्षा के लिए पात्र रखने की आज्ञा दी है । और आहार-पानी मादि नीचे गिरने और जीवविराधना होने से बचाने के लाभ की दृष्टि से उन्हें पात्र ग्रहण करना चाहिए । रोगी, बालक, वृद्ध, नवीन साधु. पाहुने साधु, गुरुमहाराज, असहिष्णु साधुवर्ग, एक ही वसति (उपाश्रय) में रहने वाले लब्धिरहित साधुवर्ग इत्यादि की आहार-पानी आदि से सेवा पात्र रखने पर ही हो सकती है। क्योंकि पात्र में आहारादि वस्तुएँ ग्रहण करके लाने में किसी प्रकार का असयम नहीं होता।
यहां प्रश्न होता है कि तीर्थकरों ने वस्त्र-पात्र का परिभोग किया हो, ऐसा सुनने में नहीं आता इसलिए उनके अनुगामी शिष्यों को उनके चरित्र का अनुसरण करना उचित है ! कहा भी है-'वारिसं गुरुलिंग सिस्सेण वि तारिसेण होयब्वं'- यानी जसा गुरु का लिङ्ग-आचरण हो, वैसा ही आचरण उसके शिष्य का होना चाहिए ? इसके उत्तर में कहते हैं-'श्रीतीर्थकर परमात्मा का हाथ छिद्ररहित होता है, उसमें से पानी की एक बूद भी नही गिरती । अपितु उसकी शिखा सूर्य चन्द्र तक ऊँची बढ़ती जाती है। वे अपने चार या पांच ज्ञान के बल से जीवसंसक्त या जीवरहित आहार अथवा त्रसजीव
सजीवसहित पानीको भलीभांति जान कर जो निर्दोष हो, उसे ही ग्रहण करते हैं। लिए पात्र आदि का ग्रहण करना (रखना) लाभदायक नहीं है । वस्त्र तो सभी तीर्थंकरों के दीक्षाकाल में ग्रहण करने का कहा है । चौबीसों तीर्थकर एक देवदूष्यसहित दीक्षा लेते हैं, इससे वे अन्यलिंग में, गृहस्थ लिंग में या कुलिंग में परिगणित नहीं होते। परममहषियों ने यह कहा है कि भूतकाल में जो तीर्थकर हो चुके हैं, भविष्यकाल में जो होने वाले हैं, और वर्तमानकाल में जो विचरण कर रहे हैं, वे सभी वस्त्रपात्रयुक्त धर्म का उपदेश देने वाले होने से एक देवदूप्यवस्त्र धारण करके दीक्षा ग्रहण करते हैं, दीक्षा ग्रहण करेंगे और दीक्षा ग्रहण की थी, उन सवकी मैं पर्युपासना करता हूं।" दीक्षा लेने के बाद समस्त परिषहों और उपसर्गों की पीड़ा को वे सहन करते हैं, इसलिए फिर उन्हें वस्त्र की आवश्यकता नहीं रहती। किसी प्रकार से वह वस्त्र चला जाता है तो फिर वे उसको ग्रहण नहीं करते । शिष्य को गुरु क आचरण का अनुसरण करना चाहिए, ऐसा जो कहा गया है, वह इसी दृष्टि से कहा गया समझना चाहिए। यह तो वैसा ही है जैसे कोई सामान्य हाथी ऐरावत हाथी का अनुकरण करे। तीर्थंकर का अनुकरण करने का इच्छुक साधक मठ, वसति या उपाश्रय में निवास करना, कारणवश आधाकर्मी आहार का सेवन करना, बीमारी में तेल की मालिश करना, घास की चटाई या घास रखना, कमंडल रखना, बहुत-से साधुओं के साथ रहना, छद्मस्थ होते हुए भी उपदेश देना, साधु-साध्वी को दीक्षा देना (शिष्य-शिष्या बनाना) आदि सभी कार्य नहीं कर सकता, क्योकि तीर्थकर तो इन सभी से दूर रहते हैं। परन्तु तीर्थकर का अनुकरण करने वाले वे तथाकथित साधु तो इन सबका आचरण करते ही हैं।
वर्षाकाल में साधु स्थंडिलभूमि या अन्यत्र कहीं बाहर गया हो, उस समय वर्षा आ जाय तो जल-कायिक जीवों की रक्षा के लिए कंबली आवश्यक होती है। बाल, वृद्ध या रुग्ण साधु के लिए वर्षा के समय भिक्षार्थ जाना पड़े तो शरीर पर कंबली ओढ़ लेने से जलकायिक जीवों की विराधना नहीं होती। लघुशंका या बड़ी शंका के लिए बरसाद के समय बाहर जाना पड़े तो कम्बली ओढ़ लेने से जल-जीवों की विराधना रुक जाती है। यहां प्रश्न होता है कि कम्बली न ओढ़ कर यदि वर्षा के समय छाता लगा ले और छाते से शरीर को ढक कर चले तो कौन-सा दोष लगता है ? इसका समाधान करते हैं