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अतिथिसंविभागव्रत का स्वरूप और विधि
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और समाधिमरणसहित अपना शरीर छोड़ा। वहां से मर कर चुलनीपिता प्रथम देवलोक में अरुणप्रभ नामक देव बना जिस प्रकार चुलनीपिता ने दुराराध्य पीपघव्रत की आराधना की थी, उसी प्रकार और भी जो कोई आराधना-साधना करेगा, वह दृढव्रती श्रावक अवश्य ही मुक्ति पाने का अधिकारी बनेगा । यह है, चुलनी पिता की व्रतदृढ़ता का नमूना !
अब अतिथिसविभाग नामक चौथे शिक्षाव्रत के सम्बन्ध में कहते हैं
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दानं चतुविधाऽऽहारपात्त्राऽच्छादनसद्मनाम् । अतिथिभ्योऽतिथिसंविभागव्रतमुदीरितम्
अर्थ- -चार प्रकार का आहार, वस्त्र, पात्र, मकान आदि कल्पनीय वस्तुएं साधुसाध्वियों को दान देना, अतिथिसविभाग नानक चौथा शिक्षाव्रत कहा है ।
व्याख्या अतिथि का अर्थ है जिनके आगमन की कोई नियत तिथि न हो, जिसके कोई पर्व या उत्सव आदि नियत न हों, ऐसे उत्कृष्ट अतिथि साधुसाध्वी है । उनके लिए संविभाग करना, यानी जब वे भिक्षा के लिए भोजनकाल में पधारें तो उन्हें अपने लिए बनाये हुए अशन, पान, खाद्य और स्वाद्यरूप चार प्रकार के आहार में से दान देना, तूम्बे या लकड़ी आदि के पात्र, ओढने के लिए वस्त्र या कम्बल और रहने के लिए मकान और उपलक्षण से पट्टा, बाजोट, चौकी, पटड़ा, शय्या आदि का दान देना, अतिथिसंविभागव्रत है। इससे स्वर्ण आदि के दान का निषेध किया गया है, क्योंकि साधु को उसे रखने का विधान नहीं है। वास्तव में ऐसे उत्कृष्ट सुपात्र को उनकी आवश्यकतानुसाग दान देने को अतिथि विभागत्रत करते हैं। अतिथिसंविभागवत की व्युत्पत्ति के अनुसार इस प्रकार अर्थ होता हैअतिथि - यानी जिसके कोई तिथि, वार, दिन, उत्सव या पर्व नही है ऐसे महाभाग्यशाली दानपात्र को अतिथि साधुमाध्वी कहते है । संविभाग में सम् का अर्थ है सम्यक् प्राार आधाकर्म आदि ४२ दोपों से रहित वि अर्थात् विशिष्ट प्रकार से पश्चात्कम आदि दीपरहित, भाग अर्थात् देय वस्तु में से अनुक अंश देना । इस प्रकार समग्र अतिथिनविभागव्रत पद का तात्पर्य यह हुआ कि अपने आहारपानी, वस्त्र, पात्र आदि देयपदार्थों में से यथोचित अश माधुसाध्वियों को निर्दोष भिक्षा के रूप में देने का व्रत- नियम अतिथि सविभागवत है, बशर्ते कि वह आहारपानी आदि देय वस्तु न्यायोपार्जित हो, अचित्त या प्रामुक हो, दोगरहित हो साधु के लिए कल्पनीय हो तथा देश, काल, श्रद्धा और सत्कारपूर्वक, स्वपर आत्मा के उपकार की बुद्धि से साधु को दी जाय ! कहा भी है— न्याय से कमाया हुआ और साधु के लिए कल्पनीय आहार पानी आदि पदार्थ देश, काल, श्रद्धा और सत्कारपूर्वक उत्तम भक्तिभावों ( शुभ परिणामो से युक्त हो कर स्वपर-कल्याण की बुद्धि से मयमी को दान करना अतिविसंविभागत्रत है । दान (सविभाग) में विधि, द्रव्य दाता और पात्र चार बातें देखनी चाहिए ।
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पाल - साधुवर्गरूप उत्कृष्ट पात्र हो भिक्षाजीवी हो, संयमी हो वह उत्कृष्ट सुपात्र है ।
दाता - देव भिक्षा के ४२ दोषों में से १६ उत्पादन के दोष दाता से ही लगते हैं । दाता वही शुद्ध होता है, जो साघु के निमित्त से भावुकतावश कोई चीज आरम्भ समारम्भपूर्वक तैयार न करता, करवाता हो, न पकाता हो, न खरीद कर लाता हो । साधु को भिक्षा देने के पीछे उसकी कोई लौकिक या भौतिक कामना नामना या स्वार्थलिप्सा न हो; वह किसी के साथ प्रतिस्पर्धा की भावना से न देता हो । शर्माशर्मी, देखादेखी या अरुचि से नहीं बल्कि उत्कट श्रद्धाभक्तिपूर्वक दान देता हो ।