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________________ मांसाहार और बन्नाहार में कोई समानता नहीं २५९ अर्थ जीव का वध करते ही तुरंत उसमें निगोदरूप अनन्त समूच्छिम जीव उत्पन्न हो जाते हैं, और उनकी बार-बार उत्पन्न होने की परम्परा चालू ही रहती है । आगमों में बताया है-"कच्चे या पकाये हुए मांस में या पकाते हुए मांसपेशियों में निगोद के समूच्छिम जीवों को निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है। इसलिए इतनी जीवहिंसा से दूषित मांस नरक के पथ का पाथेय (माता) है । इस कारण कौन सुबुद्धिशाली व्यक्ति मांस को खा सकता है ? व्याख्या इससे सम्बन्धित कुछ उपयोगी श्लोकार्थ प्रस्तुत करते हैं-"मांमभक्षण करने की बात वही करता है, जो मर्यादाओं को तिलांजलि दे बैठा हो, अल्पज्ञ हो, नास्तिक हो, कुशास्त्र-रचयिता हो, मांसलोलुप हो या ढीठ हो । वास्तव में उसके समान कोई निर्लज्ज नहीं है, जो नरक की आग के इंधन बनने वाले अपने मांस को दूसरों के माम से पुष्ट करना चाहता है। घर का वह सूअर अच्छा, जो मनुष्य की फेकने योग्य विष्टा को खा कर अपनी काया का पोषण करता है, मगर प्राणिघात करके दूसरे के मांस जो अपने अंगों को बढ़ाता है, वह निर्दय आदमी अच्छा नहीं है। जो मनुण्य को छोड़ कर शेष सभी जीवों के मास को भक्ष्य बताते हैं, उनके बारे में मुझे ऐसी शंका होती है कि उसे अपने वध का भय लगा है । जो मनुष्यमांस और पशुमांस में कोई अन्तर नहीं मानता, उसमे बढ़कर कोई अधार्मिक नहीं है, न उसके जैसा कोई महापापी है, जो पशु का मांस खाता है। नर के वीर्य से और मादा के रुधिर (रज) से उत्पन्न, विष्ठा के रस से संबंधित, जमे हुए रक्तयुक्त मांस को कृमि के सिवाय और कौन खा सकता है ? आश्चर्य है, द्विज ब्राह्मण शौचमूलक धर्म बताते हैं, फिर भी वे अधर्ममूलक, सप्त धातुओं से उत्पन्न, (गंदे) मांस को खाते हैं । जो घास खाने वाले पशुओं के मांस और अन्न को एक सरीखा मानते हैं, उनके लिए मृत्यु देने वाला विष और जीवनदायी अमृत दोनों बराबर हैं । जो जड़ात्मा अज्ञानी यह मानते हैं कि जैसे चावल भी एकन्द्रिय जीव का अग है, वैसे ही मांस भी जीव का अंग है, इसलिए सत्पुरुषों को चावल की तरह मांस खा लेना चाहिए, तो फिर वे जड़बुद्धि अज्ञ, गाय से उत्पन्न हुए दूध के समान गाय के मूत्र को क्यों नहीं पोते ? चावल आदि में प्राणियों के अंग के समान मांस, रक्त, चर्बी आदि अभक्ष्य पदार्थ नहीं हैं, जबकि मास में ये सब अभक्ष्य पदार्थ है। इसलिए ओदन आदि मध्य हैं, जब कि मांसादि अभक्ष्य है। जैसे पवित्र शंख ओर जीव के अंग की हड्डी आदि एक समान नहीं माने जाते, वैसे ही ओदनादि अभक्ष्य नहीं माने जाते । जो पापी अंग अंग सभी समान हैं, यह कह कर मांस और ओदन को समान मानता है, वह स्त्री स्त्री सभी समान हैं, ऐसा मान कर अपनी माता और पत्नी में समान व्यवहार की कल्पना क्यों नहीं करता? एक भी पंचेन्द्रिय जीव का वध करने से या उसका मांसभक्षण करने से जैसे नरकगति बताई है, वैसे अनाज आदि (एकेन्द्रिय) के भोजन करने वाले को नरकगति नहीं बताई है। रस और रक्त को विकृत करने वाला मांस अन्न नहीं हो सकता । इसलिए मांस नही खाने वाला अन्नभोजी पापी नहीं हो सकता। अन्न पकाने में एकेन्द्रिय जीव का ही वध होता है, जो देशविरतिश्रावक के व्रत में इतना बाधक नहीं है। मांसाहारी की गति का विचार करते हुए अन्नाहार में संतोष मानने वाले उच्च जनशासनप्रेमी गृहस्थ भी उच्चकोटि की दिव्य सम्पत्तियां प्राप्त करते हैं।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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