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योगशास्त्र: द्वितीय प्रकाश
तृष्णादावाग्नि की महिमा ही कुछ अलौकिक है कि यह धर्ममेघ-रूपी समाधि को तत्काल समाप्त कर देती है। तृष्णापिशाची के अधीन बना हुआ मनुष्य धनवानों के सामने दीन-हीन वचन बोलता है गीत गाता है, नृत्य करता है, हावभाव दिखाता है, उसे कोई भी लज्जाजनक काम करने में शर्म नहीं आती । बल्कि ऐसे कामों को वह अधिकाधिक करता है। जहां हवा भी नहीं पहुंच पाती, जहाँ सूर्य-चन्द्रमा की किरणें प्रवेश नहीं कर सकती, वहाँ उन पुरुषों की आशारूपी महातरगे बेरोकटोक पहुंच जाती हैं : जो पुरुष आशा के वश में हो जाता है, वह उसका दास बन जाता है, किन्तु जो आशा को अपने वश में कर लेता है, आशा उमकी दासी बन जाती है। आशा किसी व्यक्ति की उम्र के साथ घटने-बढ़ने वाली नहीं है। क्योंकि आदमी ज्यों-ज्यों बूढ़ा होता जाता है, त्यों त्यों उसकी आशा-तृष्णा बूढ़ी नही होती। तृष्णा इतना उत्पात मचाने वाली है कि उसके मोजूद रहते कोई भी व्यक्ति सुख प्राप्त नहीं कर सकता। मनुष्य का शरीर बूढा होता है, तब शरीर की चमड़ी भी ककड़ के समान सिकुड़ जाती है, काले केश सफेद हो जाते हैं; धारण की हुई माला भी मुझ जाती है। इस प्रकार शरीर का रंगरूप बदल जाने पर भी आशा कृतकृत्य नहीं होती । आशा ने जिस पदार्थ को छोड़ दिया, वह प्राप्त अर्थ से भी बढ़ कर हो जाता है । पुरुष जिस पद.थं को बहुत प्रयत्न से प्राप्त करने की आकांक्षा करता है, वही पदार्थ आशा को तिलांजलि देने वाले को भागानी से प्राप्त हो जाता है। किसी का पुण्योदय जाग जाय या किसी का पुण्योदय नहीं है, तो भी आशापिशाची का पल्ला पकड़ना व्यर्थ है। जिसने आशा-तृष्णा को छोड़ कर संतोषवृत्ति धारण कर ली, वही वास्तव में पढ़ा-लिखा. पंडित, समझदार, ज्ञानी, पापभीर और तपोधन है । सतोषरूपी अमृत से तृप्त व्यक्तियों को जो सुख है, वह पराधीन रहने वाले इधर-उधर धनप्राप्ति के लिए भागदौड़ करने वाले असंतोषी व्यक्तियों का कहां नसीब है ? सतोपरूपी बस्तर (कवच) को धारण करने वाल पर तृष्णा के बाण कोई असर नहीं करते । 'उस तृष्णा को कैसे गे?' इस प्रकार के पशोपश में पड़ कर घबराओ मत । करोड़ों बातों की एक बात जो मुझे एक वाक्य में कहनी है, वह यह है-- 'जिसकी तृष्णा-पिशाची शान्त हो गई है, समझो, उसने परमपद प्राप्त कर लिया। आशा को परवशता छोड़ कर परिग्रह की मात्रा कम करके अपनी बुद्धि साधुधर्म में अनुरक्त करके भावसाधुत्व के कारणरूप द्रव्यसाधुत्व अथात् श्रावकधर्म में तत्पर, मिथ्यादृष्टि को त्याग कर सम्यग्दृष्टि बने हुए मनुष्य विशिष्ट व्यक्ति माने जाते है । और उनसे भी उत्तम होते हैं-इससे भी परिमित आरम्म-परिग्रह वाले अन्यधर्मी जिस गति को प्राप्त करते हैं, उस गति को सोमिल के समान श्रावकधर्म का आराधक अनायास ही प्राप्त कर सकता है । महीनेमहीने तक उपवासी रह कर कुश के अग्रभाग पर स्थित बिन्दु जितने आहार से पारणा करने वाला अन्यधर्मी बालतपस्वी, संतोषवृत्ति वाले श्रावक की सोलहवीं कला की तुलना नहीं कर सकता । अद्भुत तप करने वाले तामलितापस या पूग्णतापस ने सुश्रावक के योग्य गति से नीचे दर्जे की गति प्राप्त की। इसलिए ऐ चेतन ! तू, तृष्णापिशाची के अधीन बन कर अपने चित्त को उन्मत्त मत बना । परिग्रह की मूच्छो घटा कर संतोष धारण करके यतिधर्म की उत्तमता में श्रद्धा कर, जिससे तू सात-आठ भवों (जन्मों) में ही मुक्ति प्राप्त कर सकेगा।
इस प्रकार परमाहत श्रीकुमारपाल राजा की जिज्ञासा से आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरीश्वररचित 'अध्यात्मोपनिषद' नाम से पट्टबद्ध,
अपरनाम 'योगशास्त्र' का स्वोपश-विवरण
साहित द्वितीयप्रकाश सम्पूर्ण हुआ।