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योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश
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इधर थे णिक राजा ने उस समय ४६६ मंत्री मंत्रणा के करने के लिए एकत्रित किये थे। और ५०० की संख्या पूर्ण करने हेतु जगह-जगह ऐसे ५०० वें उत्कृष्ट पुरुष की खोज हो रही थी । उस व्यक्ति की परीक्षा हेतु राजा श्रं णिक ने एक सूखे कुए में अपनी अंगूठी डाल कर घोषणा कराई जो व्यक्ति कुएं के किनारे पर खड़ा खड़ा इस अंगूठी को हाथ से पकड़ लेगा, वही बुद्धिकुशल महानर इन सभी मंत्रियों का अगुआ बनेगा।" घोषणा सुन कर सभी मंत्री पेशोपेश में पड़ गए। वे स्पर कहने लगे-- हमारे लिए तो यह कार्य असभव-सा लगता है । जो आकाश के तारे हाथ से तोड़ कर धरती पर ला सकता है, वही इस अंगूठी को कुएं से निकाल कर हाथ से पकड़ सकता है। हमारे बस की यह बात नहीं है।" उसी समय अभयकुमार हंसता-हमता वहां आ पहुंचा। उसने लोगों को आपस में बातें करते देख-सुन कर पूछा- क्या यह अंगूठी नहीं ली जा सकती ? क्या यह कोई कठिन बात है ?" लोगों ने उसके तर्क को सुन कर विचार किया. - 'यह कोई प्रतिभा का घनी प्रभावशाली पुरुष है।" समय आने पर व्यक्ति के मुख से बोला हुआ वचन ही उसके पराक्रम को प्रगट कर देता है।' एकत्रित व्यक्तियों ने अभयकुमार से कहा- "भाग्यशाली ! राजा की शर्त के अनुसार तुम अंगूठी ले लो और सभी मंत्रियों का नेतृत्व स्वीकार कर लो।" अभयकुमार ने कुए में पड़ी हुई अंगूठी पर किनारे बड़े ही जोर से गाय का ताजा गोबर फेंका और उसी समय उस पर जलते हुए घास के पूले डाले जिससे गोबर सूख यह गया। उसी समय अभयकुमार ने पानी की क्यारी बनवा कर कुंए को पानी से भर दिया। लोगों के आश्चर्य के साथ तुरंत ही गोबर अंगूठी के साथ तैरता हुआ ऊपर आ गया । अतः श्रेणिकपुत्र अभय ने उसी समय हाथ से अंगूठी वाला गोबर पकड़ लिया । "बुद्धिमान व्यक्ति अच्छी तरकीब से कोई आयोजन करे तो उसके लिए कोई बात दुष्कर नहीं है।" जो वहां खड़े थे, उन गुप्तचर वगैरह ने तत्काल राजा के पास जा कर यह खबर दी। विस्मित और चकित राजा वणिक ने अभयकुमार को अपने पास बुलाया और पुत्रसहण दृष्टि से वात्सल्यभावपूर्वक उसका आलिंगन किया। 'सम्बन्ध अज्ञात होने पर भी सम्बन्धी को देख कर मन प्रफुल्लित हो जाता है।' राजा श्रेणिक ने अभय से पूछा तुम कहाँ से आये हो ?" मैं वेणातट से आया हूं', अभय ने निर्भीक हो कर कहा । राजा ने उससे पूछा वत्स ! वहाँ भद्र नाम का प्रसिद्ध मेठ है, उनकी पुत्री नन्दा है, वह तो आनन्द में है न ?" "हां, वह आनन्द में है', अभय ने कहा । 'नन्दा तो गर्भवती थी उसने किसे जन्म दिया है ?" किरणों के समान मनोहर दंतपक्तियुक्त अभयकुमार ने कहा - "हाँ, देव ! उसने अभय नामक एक पुत्र को जन्म दिया है।' राजा ने फिर पूछा - 'वह अभय कैसा है, उसका रूप कैसा है ? उसमे कैसे गुण हैं. आयं ?" अभय ने कहा "आप मुझे ही अभय मान लो; वही मैं हूं।" यह सुनते ही अभयकुमार को आलिंगन करके गोद में बिठाया और मस्तक चूम कर हर्षित हो नेत्रजलसिंचन किया, मानो स्नेह से स्नान करा रहा हो । ' तेरी माता कुशल तो है न ?" इस प्रकार पूछने पर अभयकुमार ने दोनों हाथ जोड़ कर विनयपूर्वक कहा "स्वामिन् भ्रमरी के समान आपके चरणकमलों का बार-बार स्मरण करती हुई दीर्घायुषी मेरी माताजी इस समय नगर के बाहर उद्यान में हैं।" यह सुनते ही आनन्द से रोमांचित हो कर मन्दा को लाने के लिए अभयकुमार को आगे करके सर्वसामग्री- सहित उत्सुकतापूर्वक राजा नन्दा के सम्मुख उसी तरह चल पड़ा. जिस तरह राजहंस कमलिनी के
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उसके हाथों की चूड़ियां ढीली हो
सम्मुख जाता है । उस समय नन्दा का शरीर दुबला-सा हो रहा था, रही थीं, कपाल पर बाल लटक रहे थे, आंखों में अजन नहीं था, पोटी गूंधी हुई नही थी, वह मैलेकुचेले कपड़े पहनी हुई थी। राजा ने द्वितीया के चन्द्र की कला के समान कृण नन्दा को आनन्द से उद्यान में बैठी हुई देखी। राजा नन्दा को आनन्दित करके अपने महल में ले गया जैसे रघनन्दन राम ने
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