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संतोष की महिमा और बुद्धिमान श्रेणिककुमार
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व्याख्या ___ सामान्य मानव की बात तो दूर रही, ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूपी रत्नत्रय से सुशोभित योगीजन भी परिग्रहरूपी ग्रह के चंगुल मे फंस कर जरा-से भी सुख में लुब्ध हो जाय तो अपने वशीभूत भूत-प्रेतों के समान तप, त्याग और श्रुतज्ञान के परिवार वाले शम (संतोष) रूपी साम्राज्यसम्पत्ति को भी तिलांजलि दे बैठते हैं । अर्थात् अपने मूलगुणों को भी तिलांजलि दे कर लोमरूपी पिशाच के वश में हो जाता है। असंतोष के फल बता कर अब संतोष का फल बताते हैं
असंतोषवतः सौख्यं न शक्रस्य न चक्रिणः । जन्तोः सन्तोषभाजो यदभयस्येव जायते ॥११४॥
अर्थ असंतोषी मनुष्य चाहे वह इन्द्रमहाराज और चक्रवर्ती ही हो, उसे जो सुख प्राप्त नहीं होता, उसे सतोषी मनुष्य अभयकुमार को प्राप्त संतोषरूपी साम्राज्यसुख की तरह प्राप्त कर लेता है। अभयकुमार की सम्प्रदायगम्य कथा इस प्रकार है
संतोषी अभयकुमार प्राचीनकाल में भारतवर्ष के स्मृद्धिक्षेत्र के रूप में, विशाल किले से सुशोभित राजगृह नगर था। वहां समुद्रयन गंभीर, समग्र राजाओं को अपने गुणों से आकर्षित करने वाला प्रसेनजित राजा का शासन था। वह पार्श्वनाथ भगवान के शासनकमल में भ्रमर के समान, अत्यन्त अनुरागी सम्यग्दृष्टिसम्पन्न, अणुव्रतधारी श्रावक था। उसके बल, तेज और कान्ति में देवकुमारों को भी मात करने वाले श्रेणिक आदि अनेक पुत्र थे। इन सभी पुत्रों में राज्यधुरा को संभालने के योग्य कौन है ? इसकी परीक्षा के लिए राजा ने एक दिन तमाम कुमारों को भोजन के लिए बिठा कर उनकी थाली में खीर परोमी। सभी कुमार जब भोजन करने लगे, तभी बुद्धिमान राजा ने बाघ के समान विकराल मुंह फाई हुए शिकारी कुत्ते छोड़ दिये । कुत्तों के आते ही श्रेणिक के सिवाय सभी राजकुमार थाली पर से एकदम उठ खड़े हुए और झटपट बाहर निकल आए। श्रेणिककुमार दूसरे कुमारों को परोसी हुई थाली में से थोड़ी-थोड़ी खीर कुत्तों का डालता गया और जब तक कुत्ते वह खीर चाटते, तब तक उसने अपनी सारी खीर खा ली। यह देख कर राजा ने सोचा- 'यह कुमार ही किसी भी उपाय से शत्रुओं को वश करके इस पृथ्वी का उपभोग कर सकेगा।' राजा श्रेणिककुमार पर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। एक दिन राजा प्रसेनजित् ने फिर अपने पुत्रों की परीक्षा करने के लिए सबको टोकरों में सीलबंद लड्ड़ तथा मिट्टी के घड़ों में पानी भर कर उनका मुंह बंद करके दिये और उनसे कहा- इन टोकरों में से ढक्कन खोले या सील तोड़े बिना तथा इन घडों के छेद किये विना पानी पी लेना।' श्रेणिक के सिवाय कोई भी राजकुमार न तो लड्डू खा सका और न पानी ही पी सका। 'मनुष्य कितना हो बलवान् क्यों न हो, बुद्धि से जो काम कर सकता है, वह बल से नहीं कर सकता।' श्रेणिक ने टोकरे को हिला-हिला कर छिद्रवाली जगह से लड्डू का चूरा गिराया और खाया; इसी प्रकार पानी के घड़े के नीचे पानी की बूंदें टपक रही थीं, उन्हें चांदी की सिप्पी से इकट्ठी करके पानी पीया।' प्रत्युत्पन्नबुद्धियुक्त व्यक्ति की बुद्धि के लिए क्या दुगाध्य है ?