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नारी के प्रति मोहासक्ति का नतीजा भयंकर होता है
२२५ स्त्रियां चन्द्ररेखा जैसी कुटिल, सन्ध्या की लालिमा के समान क्षण-जीवी राग वाली, नदी के समान निम्नगा (नीचगति करने वाली) हैं, इसलिए त्याज्य हैं । कामान्ध बनी हुई अंगनाएं प्रतिष्ठा, सौजन्य दान, गौरव, स्वहित या परिहित कुछ भी नही देखतीं। क्रुद्ध सिह, बाघ या सर्प आदि जितनी हानि पहुंचाते हैं, उतनी ही, बल्कि इनमे भी बढ़ कर हानि निरकुश नारी पहुंचाती है। प्रत्यक्ष कामोन्माद-स्वरूपा स्त्रियां हथिनी के सदृश विश्व को आघात पहुंचाने वाली होने से दूर से ही त्याज्य हैं । ऐसे किसी भी मंत्र का स्मरण कगे, किसी भी देव की उपासना करो, जिससे स्त्री-पिशाचिनी शील-जीवन को चूस कर प्राणान्त न कर सके । शास्त्रो से जो सुना जाता है या लोगों में जो कुछ कहा जाता है कि नारी दुःशील है, काम-वासना से स्खलित कर देने वाली है, इस बात में सभी एकमत हैं। मानो क्रूर ब्रह्मा ने सर्प की दाढ़, यम की जीभ और विष के अकुर को एकत्रित करके नारी को बनाया हो। देवयोग से बिजली कदाचित स्थिर हो जाय, वायु चानता हुआ ठहर जाय, मगर नारी का मन कभी स्थिर नहीं रहता। चतुर से चतुर पुरुष भी मंत्र-तंत्र के प्रयोग के बिना भी जिसमे ठगे जाते है, ऐसी इन्द्रजालविद्या का भला नारी ने कहाँ अध्ययन किया है ? स्त्री में झूठ बोलने की अद्भुत कला भी होती हैं, कि प्रत्यक्ष (आंखों) देखे हुए या किये हए अपकृत्यों को भी ऐसी सिफ्त से छिपाएगी कि पता ही न चले, बात को घुमाफिरा कर ऐसे ढंग से कहेगी कि सुनने वाला उसे सोलहों आने सच मान लेगा। जिस तरह पीलिया रोग से पीड़ित या पागल व्यक्ति ही ढले का सोना मानता हैं, उसी तरह मोहान्ध मनुष्य स्त्रीसंग होने वाले दुःख को ही सुखरूप मानता है। जटाधारी, शिखाधारी, मुडितमस्तक, मौनी, नग्न, वृक्ष की छाल पहनने वाले, तपस्वी या ब्रह्माजी भी क्यों न हो, यदि वह अब्रह्मचारी है तो मुझं वह अच्छा नहीं लगता। खाज खुजलाने वाला खाज उत्पन्न होने के दुःख को भी जैसे सुखरूप मानता है, वैसे ही दुनिवार्य कामदेव के परवश बना हुआ जीव दु.खम्वरूप मैथुन को भी सुखरूप मानता है। कवियों ने नारियों की स्वर्णप्रतिमा आदि के साथ तुलना की है ; तो फिर वे कोमलोलुप उसी स्वर्णप्रतिमा का आलिमन करके तृप्त क्यों नहीं हो जाते ? स्त्रियों के जो निन्दनीय और गुह्य (छिपाने लायक) अंग है, उन्हीं पर तो मोहमूढ़ मानव फिदा होता है तो फिर उसे दूसरे किस पदार्थ से विरक्ति हो ? सचमुच दुःख की बात तो यह है कि अज्ञान और मोह से ग्रस्त मानव मांस और हड्डियों के बने हुए घिनौने अंगों की चन्द्र, कमल और मोगरा आदि के साथ तुलना करके इन सुन्दर पदार्थों को भी दूषित करता है। नितम्ब (चतड़), जांघ, स्तन आदि से मोटी और भारी नारी को मूढ़ कामी सुरत क्रीड़ा के समय वक्षःस्थल पर आरोपित करता है, लेकिन उसे वह यों नहीं समझता है कि यह संसारसमुद्र में डूबने के लिए अपने गले में बांधी हुई शिला है । अत: हे बुद्धिशाली श्रावक ! नारी को भवसमुद्र के ज्वार के समान चपल-कामरूपी शिकारी की लक्ष्य बनी हुई हिरनी के समान, मदान्ध बनाने वाली मदिरा के समान, विषयरूपी मृगतृष्णा के जल के लिए रेगिस्तान के समान, महामोहरूपी अन्धकारसमूह के लिए अमावस्या की रात के समान और विपदाओं की खान के समान समझ कर नारी का झटपट त्याग करो।
अब मूर्छा (आसक्ति) का फल बता कर उसके निमंत्रण के रूप में पंचम अणुव्रत का विवरण प्रस्तुत करते हैं--
असन्तोषनारपासमार दुःखकारणम् । मत्वा मूर्छाफलं कुर्यात् परिग्रह-नियंत्रणम् ॥१०६॥