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योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश उत्तर दिया-रानी जी का स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण आज वह उद्यान में नहीं जा सकीं, अतः कामदेव आदि देवों की पूजा वे महल में ही कर लेंगी, इस लिहाज से इस कामदेव की मूर्ति को हम महल में ले जा रहे हैं । अभी कुछ और देवों का भी प्रवेश कराया जाएगा . द्वारपाल ने कहा- अच्छा, इस मूर्ति के ऊपर का कपड़ा हटा कर हमें बताते जाओ। अतः पण्डिता ने मूर्ति पर का कपड़ा हटा कर उसे बता दिया और महल में ले गई । इमी प्रकार दूसरी और तीसरी बार भी पण्डिता ने मूतियों को महल में प्रविष्ट कराया । सच है, नारी में कितनी कपटकला और कुशलता ! चौथी बार मूर्ति के बदले सुदर्शन को रथ में बिठा कर ऊपर से कपड़ा इस खूबी से ढक दिया कि देखने वाले को वह साक्षात् मूर्ति ही मालूम दे । इस बार चौकीदार की आँख वचा कर बिना बताए ही पण्डिता रथ को सीधा राजमहल के चौक में ले गई और फुर्ती से रथ से उतार कर महल में रानी के खास कमरे में ले जा कर उमे सोंपा। कपड़ा हटा कर सुदर्शन को देखते ही अभयारानी कामातुर हो कर हावभाव और कामचेष्टाएं प्रदर्शित करती हुई उसे विचलित करने का प्रयत्न करने लगी। स्तन आदि अंगोपांग दिखाते हुए निर्लज्ज हो कर रानी कटाक्ष करती हुई बोली . ' नाथ ! कामदेव के तीखे वाणों ने मुझे घायल कर दिया है । आप साक्षात् कामदेव-समान होने से मैं उससे शान्ति पाने के हेतु आपकी शरण में आई हैं। हे शरण्य ! स्वामिन् ! मुझ कामपीड़िता को बचाओ । महापुरुष तो परोपकार के लिए अकार्य में भी प्रवृत्त हो जाते हैं । आपको जो पण्डिता छल से यहां तक लाई है. उस पर आप जरा भी क्रोधन वरना।' पीडित की रक्षा के कार्य में कपट कपट नहीं कहलाता।" यह सुन कर उच्च पारमाथिक विचारों में लीन सुदर्शन भी, देवमूर्ति की तरह कायोत्सर्ग में निश्चल खड़ा रहा । अभया ने फिर प्रार्थना की--नाथ ! आप कुछ तो बोलिये ! मैं तो इतनी देर से आपको मनोहर हावभावों से बुला रही हूं और आप हैं कि बिलकुल मौन धारण किये निश्चेष्ट खड़े हैं। मेरी उपेक्षा क्यों कर रहे हैं आप ? इतना कष्ट कर व्रत क्यों अपना रखा है ? छोड़ो इसे ! मेरी प्राप्ति होने से आपको अपने व्रत का फल मिल गया है आपकी कार्यसिद्धि हो गई है, समझिए । हे मानद ! विनम्रतापूर्वक याचना करती हुई इम दासी को स्वीकार करो । देवयोग से गोद में आ कर पड़े हुए रत्न को आप क्यों नहीं स्वीकार करते ? अब कब तक यह मौभाग्य-गर्व का नाटक करोगे ?" यों कहती हुई अभया ने अपने पुष्ट उन्नत स्तनों का सुदर्शन के हाथ से स्पर्श कराया, पदम कमल के समान दोनों कोमलकरों से गाढ़ आलिंगन किया। इस प्रकार के ब्रह्मचर्यभंग के अनुकूल उपसर्ग आए देख कर स्वभाव से धीर सुदर्शन अपने कायोत्सर्ग में निश्चल रहा । सुदर्शन ने मन ही मन मंकल्प किया-"इस उपसर्ग मे किसी भी तरह से छुटकारा होगा, तभी मैं कायोत्मर्ग पूर्ण करके पारणा करूंगा, अन्यथा मैं अपना अनशन जारी रखूगा।" मृदर्शन के निरुत्तर और निश्चष्ट खड़े रहने से हतप्रभ व अपमानित बनी हुई कुटिल हृदया अभया ने निर्भय हो कर मुकुटि चलाते हुए कहा- "अरे निर्लज्ज ! मूर्ख ! जड़ात्मा ! क्या तू मुझ सम्माननीय का अपमान करता है ? याद रखना, नारी पुरुषों को सजा देने या पुरस्कार देने में समर्थ होती है। क्या तुम्हें यह पता नही है ? कामदेव के अधीन मुझ कामातुरा द्वारा इतनी प्रार्थना करने पर भी अगर तुम मेरे वश में नहीं होओगे तो नि:संदेह, मैं तुम्हें देखते ही देखते यमराज का मेहमान बना दूंगी।" इस प्रकार ज्यों-ज्यों अभया आवेश में आ कर उग्र होती गई, त्योंत्यो-स्यों महामना सुदर्शन धर्मध्यान की श्रेणी पर अधिकाधिक चढ़ते गए। यों करते-करते सारी रात बीत गई। बार-बार हैरान किये जाने पर भी सुदर्शन ध्यान से जरा भी चलायमान नही हुए। नौका के दह से ताड़न करने पर क्या कभी महासमुद्र क्षुब्ध होता है ?