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योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश है कि ऐसे दुर्लभ मंत्र को तूने पुण्ययोग से प्राप्त किया है। परन्तु जब कपड़े या शरीर गदे हों. मुहहाथ झूठ हों, तब इस गुरुमन्त्र का कदापि उच्चारण नहीं करना चाहिए।' इस पर सुभग ने सेठ से कहा-'व्यसनी जैसे व्यसन को नहीं छोड़ सकता, वैसे ही मैं इस मंत्र को कदापि नहीं छोड़ सकता।" संठ ने प्रसन्नतापूर्वक कहा - "अच्छा, वत्स ! तू यह नमस्कारमंत्र पूरा सीख ले, जिससे इहलोक व परलोक में तेरा कल्याण हो ।' अत सुभग ने वह नमस्कारमंत्र पूरा सीख लिया । मानो उसे कोई अद्भुत निधान मिल गया हो, इस दृष्टि से उस मत्र का वह शुभाशय सुभग निरन्तर स्मरण (जप) करने लगा । इस मंत्र के प्रभाव से पशुपालक सुभग को भूख-प्यास की कोई पीड़ा भी नहीं रहतो। इस तरह वह पंचपरमेष्ठी मत्र का व्यसनी बन गया। उसके जीवन का अंग बन गया, वह महामंत्र ।
___यों करते हुए काफी अर्सा व्यतीत हो गया। एक बार वर्षाऋतु के दिनों में निरन्तर आकाश मे मेघघटा छाई हुई थी। सुभग घर से अपने पशु ले कर जंगल में चराने गया। वापिस लौटते समय ऐसी मूसलधार वर्षा हुई, मानो जलधारारूपी वाणश्रेणी ने आकाश और पृथ्वी को बांध दिया हो ।
को घर आते समय रास्ते में एक छोटी-सी नदी पड़ती थी, उसमें भी आज भयंकर बाढ़ आ गई थी। अत: जल से लबालब भरी उफनती नदी को देख कर सुमग थोड़ी देर इस किनारे पर ही ठहर कर कुछ सोचने लगा। उसके पशु तो नदी पार करके परले किनारे पहुंच गए थे। सुभग ने भी दृढविश्वासपूर्वक आकाशगामिनी विद्या की दृष्टि से वह महामंत्र नवकार पढ़ा और छलांग मार कर ऊपर उहने का प्रयत्न किया, लेकिन वह नदी में गिर पड़ा। अचानक ऊपर से गिरने के कारण वह कीचड़ में जहां रुका था, वहाँ यमराज के दांत के समान मजबूत एक लकड़ी का तीखा खूटा पड़ा था, वह एकदम उसके पेट में घुस गया। कोल घुसने की-सी असह्य वेदना होने लगी, फिर भी वह पचपरमेष्ठी-मंत्र का का जाप करता रहा। खूटा मर्मस्थान में तीखी कील की तरह गड़ गया था, इस कारण तत्काल उसकी मृत्यु हो गई। मर कर तत्काल वह 'अहदासी' की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। निःसंदेह नमस्कारमंत्र में तल्लीन होने वाले की सद्गति होती ही है। तीन महीने के बाद श्रेष्ठीपत्नी को दोहद पैदा हुआ। उसने अपने दोहद का हाल बताया कि मुझे जिनेश्वर-प्रतिमा का सुगन्धित जल से अभिषेक करने, विलेपन करने और पुष्पों द्वारा अर्चा करने की अभिलाषा हुई है, साथ ही मुनिराजों को वस्त्रादि दान दे कर श्रीसंघ की पूजा करने और दीनदुःखियों को दान देने आदि की भावना हुई।' यह सुन कर सेठ बड़ प्रसन्न हुए और चितामणि के समान सेठानी के दोहद पूर्ण किये। तत्पश्चात् नौ महीने साढ़े सात दिन पूर्ण होने पर सेठानी ने शुभलक्षणसम्पन्न एक स्वस्थ एवं सुन्दर पुत्र को जन्म दिया सेठ ने बड़ी खुशी के साथ शम दिन देख कर पुत्रमहोत्सव किया, उसका यथार्थ गुणसम्मत सुदर्शन नाम रखा । माता-पिता के उत्तम मनोरथ के साथ सुदर्शन क्रमश: बड़ा होने लगा। योग्य उम्र होने पर उसने समस्त कलाएं सीखीं। वयस्क होने पर सेठ ने उसका विवाह साक्षात् लक्ष्मी के समान मनोहर रूपलावण्यसम्पन्न 'मनोरमा' नामक कन्या के साथ कर दिया। सुदर्शन की सौम्य आकृति केवल माता-पिता को ही नही राजा एवं अन्य सभी लोगों को चनामा के समान आह्लादक एवं प्रोति उत्पन्न करने वाली थी।
उसी नगर में विद्यासमुद्रपारगामी कपिल नाम का राजपुरोहित रहता था, राजा के हृदय में भी उसका पर्याप्त स्थान था। जैसे कामदेव के साथ वसन्तऋतु की अटूट मैत्री होती है वैसे ही कपिल के साथ सुदर्शन की स्थायी और अटूट मैत्री हो गई। जैसे दुष सूर्य का साथ नहीं छोड़ता, वैसे ही कपिल भी प्रायः महामना सुदर्शन का साथ नहीं छोड़ता था। एक दिन पुरोहितपत्नी कपिल के