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नकली सुग्रीव और असली सुग्रीव में युद्ध
२०६ है, वैसे ही इन दोनों महायोद्धाओं की लड़ाई से खेचरीगण भाग जाती थीं। दो जंगम पर्वतों की तरह मल्लयुद्ध करते-करते उन दोनों महायोद्धाओं के शस्त्र टूट कर नष्ट हो गए। क्रोध से परस्पर एक दूसरे लिए असह्य बने हुए वे क्षणभर में आकाश में उड़ते हुए और दूसरे ही क्षण भूमि पर गिरते हुए-से मालूम होते थे, मानों दोनों वीर-चूड़ामणि मुर्गे हों। दोनों महाप्राण परस्पर एक दूसरे को नहीं जीत सके, तब थके हुए बली की तरह दूर हट कर खड़े होगए। वे दोनों अब थक कर इतने चूर हो गए थे कि लड़ना अब उनके बस का न रहा । अन्ततः किष्किन्धानगरी से बाहर निकल कर दोनों एक स्थान पर बैठ गए। वहीं अस्वस्थ मन वाला बनावटी सुग्रीव रहा । बालिपुत्र ने उसे अन्तपुर में किसी भी मूल्य पर प्रविष्ट नहीं होने दिया।
सच्चा सुग्रीव वहीं नीचा सिर किये बैठा-बैठा सोचने लगा-'अहो ! मेरा यह स्त्रीलम्पट शत्रु कितना कपटपटु है कि इसने मेरे स्वजनों को प्रपंच से वश करके अपना बना लिया है । खेद है, इसने अपने ही घुटनों पर कपट से छापा मारा है। अब तो यही चिन्ता है कि कैसे यह मायावी एवं प्रबल पराक्रमी द्वेषी दुष्ट मुझसे मारा जाएगा ? धिक्कार है बाली के नाम को लज्जित करने और अपने पराक्रम से गिरने वाले मुझे" महाबली अखण्ड पुरुषव्रतपालक बाली को धन्य है, जिन्होंने तिनके के समान राज्य का त्याग कर परमपद की प्राप्ति की । मेरा पुत्र चन्द्ररश्मि भी यद्यपि बलवान है, फिर भी हम दोनों का रहस्य न जानने के कारण वह भी किसकी रक्षा करे, किसकी नहीं ?' इस पशोपेश में पड़ा है। परन्तु चन्द्ररश्मि ने इतना अच्छा किया कि उस दुष्ट को अन्त.पुर में नहीं घुसने दिया। इस कट्टर दुश्मन को मारने के लिए मैं मुम से बढ़कर किस बलिष्ठ का आश्रय लू? क्योंकि 'शत्र को तो किसी भी सूरत से खुद के या दूसरे के द्वारा मार डाला जाना चाहिए। क्या मैं पाताल, धरती और स्वर्ग इन तीनों में पराक्रमी ममत का या यज्ञ को भंग करने वाले रावण का शत्रुवध के लिए आश्रय लू? नहीं, नहीं, वह तो स्वभाव से स्त्रीलम्पट और तीनों लोकों में कांटे की तरह है। उसका वश चलेगा तो वह उसे और मुझे मार कर तारा को अपने अधीन कर लेगा । ऐसे संकट के समय दृढ़ साहसी, कठोर खर शक्तिशाली राजा था, लेकिन राम ने उसे मार दिया । अत: अब तो यही उपाय है कि शक्तिशाली, भुजबली राम और लक्ष्मण के पास जाकर उनसे मंत्री करू? उन्होंने कुछ दिनों पहले विराध को राजगद्दी पर बिठाया है और अभी वे विराध के आग्रह से पाताललंका में ही रुके हुए हैं। इसी तरह सुग्रीव ने एकान्त में गहरा मंथन करके अपने एक विश्वस्त दूत को विराध के पास भेजा । उसने पाताललंका में जा कर विराध को नमस्कार करके अपने स्वामी द्वारा कहा गया संदेश उन्हें दिया और अन्त में कहा-हमारे स्वामी बड़े संकट में हैं । वे आपके जरिये रखनन्दन राम और लक्ष्मण की शरण स्वीकार करना चाहते हैं।" विराध ने कहा-'सुग्रीव को यहाँ जल्दी से जल्दी ले आओ। सब कुछ ठीक होगा।' 'सत्पुरुषों का समागम प्रबल पुण्य से मिलता है।' दूत ने आ कर सारी बात सुग्रीव से कही । सुग्रीव ने भी अपने उत्तम घोड़े पर चढ़ कर प्रस्थान किया और घोड़े की हिनहिनाहट से सभी दिशाओं को शन्दायमान करता हुआ, दूतगति से दूरी कम करता हुआ वह चलने लगा। पड़ोसी के घर की तरह शीघ्र ही वह पाताललंका पहुंच गया। वहां वह सर्वप्रथम विराध से मिला। विराध भी उससे गले लगा कर प्रेम से मिला और नि:स्वार्थ पररक्षक श्रीराम से उसे मिलाया। सुग्रीव ने उन्हें नमस्कार किया और अपनी सारी कष्टकथा कह सुनाई । अन्त में कहा-'ऐसे संकट के समय आप ही मेरे शरणभूत हैं। जब छींक रुक
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