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योगशास्त्र: द्वितीय प्रकार
व्याख्या वास्तव में स्त्रीसहवास से कामज्वर शान्त नहीं होता, बल्कि और अधिक बढ़ जाता है। नीतिशास्त्र में भी बताया है. कामोपभोग से काम कदापि शान्त नहीं होता, अपितु घी की आहुति देने पर आग और ज्यादा भड़क उठती है, वैसे ही कामसेवन से काम अधिक ही उत्तेजित होता है। कामज्वर को शान्त करने की कोई भी अचूक औषधियां प्रतीकारक उपाय रूप हैं तो वे हैं वैराग्य भावना; परसेवा, धमक्रिया या धर्मानुष्ठान, धर्मशास्त्र श्रवण आदि है। अतः कामज्वर को शान्त करने का उत्तम साधन होने पर भी भवभ्रमणकारणरूप मैथुनसेवन करने से क्या लाभ ? इसी बात को स्पष्ट करते हैं
वरं ज्वलदयःस्तम्भ-परिरम्भो विधीयते । न पुनर्नरकद्वार-रामाजघन-सेवनम् ॥१२॥
अर्थ आग से तपे हुए जाज्वल्यमान लोहे के खंभे का आलिंगन करना अच्छा है, मगर नरकद्वार के तुल्य स्त्री-जघन का सेवन करना अच्छा नहीं।
व्याख्या एक बार कामज्वर को शान्त करने के लिए मैथुन कदाचित् उपाय हो जाय ; मगर नरक का कारणरूप होने से वह कदापि प्रशंसनीय नहीं है । और स्त्री के विषय में या स्त्री का स्मरण करने पर भी वह सारे गुणगौरव का अवश्य नाश कर देता है। इसी बात की पुष्टि करते हैं
सतामपि हि वाम दाना हृदये पदम् । अभिरामं गुणग्रामं निर्वासयात निश्चितम् ॥३॥
अर्थ सत्पुरुषों के हृदय में अगर स्त्री का कटाक्ष स्थान जमा ले तो वह निश्चित ही सुन्दर गुणसमुदाय को वहां से निकाल देता है।
व्याख्या निःसन्देह कटाक्ष करने वाली स्त्रियों का स्मरणमात्र ही सज्जनपुरुषों के गुणसमूह का बहिष्कार कर देता है। तात्पर्य यह है कि जैसे खराब (भ्रष्ट) गज्याधिकारी को किसी स्थान पर नियुक्त किये जाने पर वह लोभवृत्ति से वहां के रक्षण के बजाय भक्षण करने लगता है। इसी प्रकार हृदय में स्थान पाई हुई कामिनी भी पालन-रक्षण करने योग्य गुणसमूह को समूल उखाड़ फैकती हैं। अथवा सत्पुरुषों का गुणसमूह भी उसके हृदय में भी प्रवेश करके नारी में रहे हुए उत्तमगुणों को चौपट कर देता है। हदय में स्थान पाई हुई स्त्री अनेक दोषयुक्त होने से गुणवृद्धि के बदले गुणहानि की ही प्रायः कारणभूत बनती है। फिर उसके साथ रमण करने की तो बात ही दूर रही !