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________________ राजा मूलदेव द्वारा अचल सार्थवाह को क्षमादान किसी को देखते ही पूर्वजन्म के सम्बन्ध के स्मरण की तरह तुरत उसे पहिचान लेता है। परन्तु अचल मूलदेव को राजा के वेश में नहीं पहिचान सका । सच है, वेष परिवर्तन करने पर एक नट को भी अल्प नहीं पहिचान पाते। कुशल प्रश्न के पश्चात राजा ने सार्थवाह से पूछा-"कहो जी! आप कहां से और किसलिए आए हैं ? कौन हैं ?" अपने साथ क्या-क्या माल लाए हैं ?' उसने उत्तर में कहा'राजन् ! हम पारसकुल से आए हैं । कीमती माल बेचने के लिए परदेश से लाये हैं। आप, उसे देखने के लिए आज्ञा फरमावें ।' कौतुकवश राजा ने कहा-"अच्छा ; मैं स्वयं देखने के लिए आऊंगा।" सार्थवाह बोला–यदि मेरी कुटिया पावन करेंगे तो आपकी बड़ी मेहरबानी होगी।' बड़े आदमियों के क्रोध और प्रसन्नता को कौन समझ सकता है ?" राजा सार्थवाह के साथ उसके डेरे पर आया । उसने भी मजीठ, कपड़ा, सूत आदि लाए हुए माल की जगात तय करने के लिए सारा माल खोल कर बताया। राजा ने माल देख कर पूछा- क्या इतना ही माल है ?' "हाँ, दीनदयाल ! इतना ही है।' 'सच-सच बताओ, अगर ज्यादा माल निकला तो तुम्हारी पूरी खबर ली जाएगी।' सार्थवाह-'मैं सच-सच कहता सना ही माल है।' राजा ने अपनी बात दोहराते हुए कहा-'देखो, अच्छी तरह देख कर बताओ। हमारे राज्य में करचोरी करने वाले को भयंकर शारीरिक सजा दी जाती है।' अचल बोला'दीननाथ ! हम दूसरों के सामने भी असत्य नहीं बोलते तो आपके सामने कैसे बोल सकते हैं ?' यह सुन कर राजा ने अपने कराधिकारी से कहा-"इस सत्यवादी सार्थवाह से आषा कर लेना और इसके माल की अच्छी तरह तलाशी ले लेना।" गजा के आदेश पर करदेय-वस्तुनिरीक्षक महाजनों ने बांस के लात मार कर उसे अंदर उतार कर तलाशी ली तो मामूली माल के बीच में छिपाये हुए कुछ कीमती माल की शंका हुई । शंका होने से वहां खड़े राजपुरुषों ने वहां चारों ओर रखे हुए किराने के स्थानों को झटपट टटोल लिया। उन्हें सार्थवाह के माल और धन दोनों पर शक हुआ। अधिकारी सदा दूसरों के दिल और नगर की तह तक पहुंच जाते हैं । अतः वे अधिकारी सार्थवाह पर कुपित हुए, उसे फटकारा और करचोरी का अपराध लगा कर उसे गिरफ्तार कर लिया। राजा के आदेश से सामन्त भी गिरफ्तार कर लिये जाते हैं तो इस व्यापारी की क्या बिसात थी! राजपुरुषों ने उसे राजमहल में राजा के सामने प्रस्तुत किया तो राजा ने कह कर उसे बन्धनमुक्त करा दिया। फिर राजा ने उसे महल में एक ओर ले जा कर पूछा - 'मुझे पहिचानते हो, मैं कौन हूं?' अचल ने कहा- जगत् को प्रकाशित करने वाले सूर्य को और आपको कौन ऐसा मूर्खशिरोमणि होगा, जो नहीं पहिचानता होगा ?' 'चापलूसी करना बंद कर सच-सच बताओ, तुम मुझे जानते हो या नहीं ?' इस प्रकार राजा के कहने पर अचल ने कहा-'देव ! मैं आपको नहीं जानता।' इस पर राजा ने देवदत्ता को बुला कर उसे अचल को बताया। अपने ईष्टजनों को देख कर व्यक्ति खुद को कृतार्य समझता है क्योंकि इमसे अभिमानी लोगों के मन को शान्ति मिलती है । देवदत्ता को देखते ही अचल एकदम शर्मा गया और मन ही मन अत्यन्त दुख महसूस करने लगा कि एक स्त्री के सामने अपनी तौहीन होने की पीड़ा मृत्यु से भी बढ़ कर दुःखदायी होती है । देवदत्ता ने अचल से कहा-"यह वही मूलदेव है, जिन्हें तुमने संकट में डाल दिया था, और मुझे भी धर्मसंकट में डाल दिया था। देवयोग से आज तुम संकट में पड़े हो । इस समय तुम्हारे प्राण संकट में हैं। फिर भी मार्यपुत्र तुम्हें माफ करेंगे। ऐसे महापुरुष तुच्छ बातों पर ध्यान नहीं देते । न बदला लेने जैसी इतनी नीचता पर उतरते हैं।' यह सुन कर तुरन्त ही सार्थवाह ने राजा और देवदत्ता, दोनों के चरणों में पड़ कर कहा- 'उस समय मेरे द्वारा किये गए तमाम अपराधों को आप भमा करें। उसी अपराध के सिल २४
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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