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दत्तराजा द्वारा कालकाचार्य को भयंकर यातना दिये जाने पर भी सत्य पर दृढ़
१६५ यदि आप ज्ञाता हों तो यज्ञ का फल बताइए। यह सुन कर श्रीकालिकाचार्य ने कहा-"भद्र ! यदि तुम धर्म के विषय में पूछ रहे हो तो सुनो। जो अपने लिए अप्रिय है, वह व्यवहार दूसरों के प्रति भी नहीं करना, यही सबसे बड़ा धर्म है।" दत्त ने अपनी बात को पुनः दोहराते हुए कहा-"अजी ! मैं तो यज्ञ का फल पूछ रहा हूं। आप बताने लगे धर्म की बात ।' इम पर आचार्यश्री ने कहा-हिमादिमूलक यज्ञ जीवन के लिए कल्याणकारी नहीं है, प्रत्युत उमसे पापकर्म का ही बन्ध होता है।" इससे उसका समाधान हो जाना चाहिये था, लेकिन आचार्य को उत्तेजित करने को दृष्टि से दुर्बुद्धि दत्त ने फिर वही बात पूछी-"हिंसा-अहिंसा की बात तो भोले लोगों को बहकाने की-सी हैं। मुझं तो आप दो टूक उत्तर दीजिए कि 'यज्ञ का फल क्या है ?" आचार्यश्री ने सहजभाव से उत्तर दिया- 'ऐसे यज्ञ का फल नरक है।' इस पर क्रुद्ध हो कर दत्त ने कहा- 'मुझे कैसे विश्वास हो कि इस यज्ञ का फल नरक ही मिलेगा? तब भविष्यद्रष्टा आचार्य ने उमे उतने ही प्रेम से उनर दिया- 'वत्म ! विश्वाम तो तुम्हें नब हो ही जायगा, जब आज से मानवें दिन तुम चाडाल की श्रववन-कुभी में पकाये जाओगे।" इम पर दत्त क्रोध से उछलना और आँखें लाल करके भौहें तानते हुए भताविष्ट की तरह बोला-इसका क्या प्रमाण है ?' कालिकाचार्य ने मज्जनतापूर्वक उत्तर दिया- "इसका प्रमाण यह है कि चांडाल को कुभी में पकाये जाने से पहले तुम्हारे मुह में एकाएक विष्ठा पड़ेगी।" रोप में आ कर दत्तने उद्दण्डता से पूछा- 'तो बनाओ! तुम्हारी मोन कम और कब होगी ?" आचार्य ने कहा - "मैं किसी के हाथ से नहीं मारा जाऊंगा । मेरी मृत्यु अपने समय पर स्वाभाविक रूप से होगी; और मर कर मैं स्वर्ग में जाऊंगा।" दत्न न आगबबूला हो कर अपने संत्रकों को आदेश दिया इम दुर्बुद्धि नालायक आचार्य को गिरफ्तार कर लो और कंद में डाल दो, ताकि वहां पड़ा-पड़ा मड़ता रहे !" आज्ञा मिलते ही मेवकों ने कालिकाचार्य को पकड़ कर कंद में डाल दिया।
इधर पापकर्मी दन से क्षुब्ध एवं पीड़ित सामन्तों ने भूतपूर्व राजा को बुला कर राज्य मौंपने का निश्चय किया। आशंकाग्रस्त दन भी सिंहगर्जना से डर कर झाड़ियों में छिपे हुए हाथी की तरह अपने घर में छिप कर रहा । देवयोग से दत्त ने मातवें दिन को भूल से आठवां दिन ममझ कर कोतवाल आदि को पहले गे ही गजमार्ग पर चौकी-पहरे की व्यवस्था का आदेश दे कर सुरक्षा का प्रवन्न करवाया । ठीक सातवें दिन दुष्ट दत्त यह दुर्विचार करके घोड़े पर सवार हो कर बाहर निकला कि "आज उस दुष्ट मुनि को पशु की तरह मार कर मजा चखा दूंगा।" उधर दत्त से पहले ही प्रातःकाल एक माली फलों का टोकरा लिये नगर में प्रवेश कर रहा था कि रास्ते में उसे जोर से टटटी को हाजत हुई। उसने हाजत को रोकना उचित न समझ कर सड़क के किनारे ही जरा-सी ओट में टट्टी बैठ कर कहीं सिपाही न पकड़ लें, इस डर से उस पर कुछ फूल डाल कर उसे ढक दी, और आगे चल दिया । कुछ ही देर बाद दत्त का घोड़ा तेजी से दौड़ा आरहा था कि एकाएक दौड़ते हुए घोड़े के एक खुर से उछल कर माली की वह विष्टा दत्त के मुंह में जा पड़ी। सच है 'महावती संयमी को वाणी मिथ्या नहीं होती।' शिला से आहत की तरह दत्त भी इस अप्रत्याशित घटना से निराश और ढीला हो कर सामन्तों को कुछ कहे सुने बिना ही अपने स्थान की ओर वापिस लौट चला। दत्त को वापिस आते देख प्रजाजनों ने सोचा-'इसे अपनी गुप्तमत्रणा का कुछ भी पता नहीं है।' अतः अपनी पूर्वनिर्धारित योजनानुसार दत्त को घर में प्रवेश करने से पहले ही बैल की तरह उन्होंने घेर लिया और बांधकर पकड़ लिया । जैरो