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________________ १६२ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश दम्भ, कपट और कामोत्तेजना के पोषक शास्त्र, ग्रन्थ या वचनों को मिथ्या जानते हुए भी उनकी प्रशसा करना, उनका समर्थन करना अथवा किसी की झूठी या पापपूर्ण बात को भी सच्ची सिद्ध करने के लिए सूठ बोल कर, झूठी सफाई देना ये सब कूटसाक्षी-विषयक असत्य के प्रकार हैं । यह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से चार प्रकार का हो सकता है। दूसरे धर्मों में प्रसिद्ध पापरूप लक्षणविशेष की अपेक्षा से यह पूर्वोक्त चारों असत्यों से अलग बताया गया है। ये पांचों क्लिष्ट आशय-बुरे इरादे से उत्पन्न होने के कारण राज्य-दण्डनीय और लोक भण्डनीय- निन्द्य माने जाते हैं, इसलिए इन्हें स्थूल असत्य (मृषावाद) समझना चाहिए । इन पांचों स्थूल असत्यों का विशेष रूप से प्रतिपादन कर इनका निषेध करते हैं सर्वलोकविरुद्ध यद् यद् विश्वसितघातकम् । यद् विपक्षश्च भूतस्य, न वदेत् तदसूनतम् ॥५५॥ अर्थ जो सर्वलोकविरुद्ध हो, जो विश्वासघात करने वाला हो, और जो पुण्य का विपक्षी हो यानी पाप का पक्षपाती हो, ऐसा असत्य (स्थूल मृषावाद) नहीं बोलना चाहिए। व्याख्या कन्या, गाय और भूमि से सम्बन्धित असत्य सारे जगत् के विरुद्ध और लोक व्यवहार मे अत्यन्त निन्दनीय रूप से प्रसिद्ध है, अतः ऐसा असत्य नहीं बोलना चाहिए। धरोहर के लिए असत्य बोलना विश्वासघात-कारक होने से उसका भी त्याग करना चाहिए । तथा पुण्य-धर्म से विरुद्ध अर्थात् धर्मविरुद्ध पापकारक अधर्म को प्रमाण मान कर उस पर विश्वास रखकर झूठी साक्षी नहीं देना चाहिए। अब असत्य का दुष्फल बताते हुए असत्य के त्याग का उपदेश देते हैं -- असत्यतो लघोयस्त्वम्, असत्याद् चनायता। अधोगतिरसत्याच्च, तदसत्यं परित्यजेत् ॥५६॥ अर्थ असत्य बोलने से व्यक्ति इस लोक में लघता (बदनामी) पाता है, असत्य से यह मनुष्य झूठा है, इस तरह की निन्दा या अपकीति संसार में होती है । असत्य बोलने से व्यक्ति को नीचति प्राप्त होती है । इसलिए असत्य का त्याग करना चाहिए। बुरे इरादे (क्लिष्ट आशय) से असत्य बोलने का चाहे निषेध किया हो, परन्तु कदाचित् प्रमादवश असत्य बोला जाय तो उससे क्या हानि है ? इसके उत्तर में कहते हैं असत्यवचनं प्राज्ञः प्रमादेनाऽपि नो वदेत् । श्रेयांसि येन भज्यन्ते, वात्ययेव महाद्र माः॥५७॥
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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