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यो ग का मा हा त्म्य
योग: सर्वविपद्वल्ली-विताने परशुः शित: । अमुलमंत्रतंत्र च, कामंणं निर्व तिप्रियः ।।५।। भयांसोऽपि हि पाप्मान प्रलयं यान्ति योगतः । चण्डवातात घनघना घनाघनघटा इव ॥६॥ क्षिणोति योगः पापानि, चिरकालाजितान्यपि । प्रचितानि यथैधांसि क्षणादेवाशुशुदाणिः ॥७॥ कफविप्रण्मलामर्श-सौंषधि-महद्धयः। सम्मिन्नस्रोतोलब्धिश्च, योग ताण्डवडम्बरम् ।। पारणाशीविषावधि-मनःपर्यायसम्पद. । योगकल्पद्र मस्यता: विकासिकुसुमश्रियः ॥६॥ अहो योगस्य माहात्म्य. प्राज्य साम्राज्यमुद्वहन् । अवाप केवलज्ञान भरती भरताधिपः ॥१०॥ ब्रह्म-स्त्री - भ्रूण • गोधात-पातकानरकातिथेः । दृढ़प्रहारिप्रभृतेर्योगो हस्तावलम्बनम् ॥१२॥ .चतुवंर्गेऽप्रणीमोक्षो, योगस्तस्य च कारणम् । ज्ञान-अडान चारित्ररूपं रत्नत्र यच सः ॥१५॥
अर्थ- समस्त विपत्तिरूपी लताओ का काटने के लिये योग तीखी धार वाला कुठार है तथा मोक्षलक्ष्मी को वश मे करने के लिए यह जड़ी-बूटी, मत्र-तत्र से रहित कार्मण वशीकरण है। प्रगण्ड वाय से जैसे घने बादलो की श्रेणी बिखर जाती है, वैसे ही योग ५. प्रभाव मे बहत से पाप भी नष्ट हो जाते हैं। जैसे चिरवाल से सचित ईधन को प्रचण्ड आग क्षणभर में जला डालती है, वैसे ही अनेक भवों के चिरसंचित पापों को भी योग क्षणभर में क्षय कर देता है । योगी को कफ, श्लेष्म, विष्ठा, स्पर्श आदि सभी औषधिरूप महासम्पदाएं तथा एक इन्द्रिय में सभी इन्द्रिय विपयों का ज्ञान हो जाने की शक्ति प्राप्त होना योगाभ्यास का ही चमत्कार है । इसी प्रकार चारविद्या आशीविषलन्धि, अवधिज्ञान और मन.पर्यायज्ञान की सम्पदाएं ; योगरूपी कल्पवृक्ष को विकगिता पुरपथी हैं । सचमुच, योग का कितना माहात्म्य है कि विशाल साम्राज्य का दायित्व निभाते हुए भी भरतक्षेत्राधिपति भरतचक्रवर्ती ने केवल. ज्ञान प्राप्त कर लिया। ब्राह्मण, स्त्री, गर्भहत्या व गोहत्या के महापाग करने से नरक के अतिथि के समान दृढ़प्रहारी आदि को योग का ही आलम्बन था। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों में मोन अग्रणी है। और उस मोक्ष की प्राप्ति का कारण योग है, जो सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रयमय है।