________________
ब्रह्मदत्त का श्रीकान्ता के साथ विवाह
तरह नहा-धो कर, पीयूष-सा मधुर जल पी कर वह उसमें से बाहर निकला। फिर वायव्य दिशा में एक किनारे खड़ी पेड़ों और बेलों की माड़ियों में फूल चुनती हुई साक्षात् वनदेवी के समान एक सुन्दरी को देखा ; जो मानो, वहाँ गुंजार करते हुए भौंरों की आवाज के जरिये पूछ रही थी- 'बापने सरोवर में अच्छी तरह स्नान किया ?" उसे देख कर कुमार सोचने लगा-ब्रह्माजी ने जन्म से ले कर आज तक अनेक रूप बनाने का अभ्यास किया होगा ; तभी तो इस नारी में वे इतना रूपकौशल प्रगट कर सके हैं । अपनी दासी के साथ बात करती हुई मोगरे के फूल के समान उज्ज्वल कनखियों से देखती हुई, वह वहां से इस तरह चली गई मानो कुमार के गले में वरमाला डाल कर चल पड़ी हो। कुमार ने भी उसे देखा और शीघ्र ही दूसरी ओर प्रस्थान कर रहा था कि एक दामी हाथ में वस्त्र, आभूषण, ताम्बूल आदि ले कर वहाँ आई । उसने राजकुमार को वस्त्रादि अर्पित करते हुए कहा- "आपने यहाँ जिसे देखा था, वह हमारी स्वामिनी है । उसने मुझे एक स्वार्थसिद्धि के बहाने आपके पास भेजा है । और मुझे यह आदेश दिया है कि मैं आपको पिताजी के मन्त्री के यहां अतिथि के रूप में ले जाऊं। सच्ची हकीकत तो स्वामिनी ही यथार्थरूप से जानती हैं।"
यह सुन कर कुमार भी उस दासी के साथ नागदेव मंत्री के यहां चला गया। मन्त्री भी कुमार के आते ही स्वागत के लिये खड़ा हो गया, मानो वह पहले से ही उसके गुणों से आकर्षित हो । दासी ने मन्त्री से कहा - 'राजकुमारी श्रीकान्ता ने आपके यहां रहने के लिये इस भाग्यशाली कुमार को आपके पास भेजा है।" दासी यह संदेश दे कर चली गई । मन्त्री ने मालिक की तरह कुमार की विविध प्रकार से आवभगत की । वह सारी रात पलक मारते ही बीत गई। फिर मंत्री कुमार को राजमहल में से गया। वहां राजा ने बालसूर्य के समान अध्यं आदि से उसका स्वागत-सत्कार किया। उसके बाद राजा ने कुमार का वंश आदि पूछे बिना ही उसे अपनी पुत्री दे दी। आकृति से ही पुरुष के गुण आदि सब जाने जा सकते हैं।' कुमार और राजकुमारी ने एक दूसरे के प्रति अनुराग-समर्पण-सूचक परस्पर हस्तमिलाप करके विवाह किया। एक बार एकान में कीड़ा करते हुए ब्रह्मदत्त ने राजकुमारी से पूछा'प्रिये ! तुम्हारे पिताजी ने वश आदि जाने बिना ही मुझ सरीखे अज्ञात व्यक्ति को तुम्हें कैसे दे दी? मनोहर दंतावली की किरणों से स्वच्छ गोष्ठदल वाली श्रीकान्ता ने इसके उत्तर में कहा -'प्रियतम ! वसतपुर नगर में शबरसेन नाम का राजा था। उसके पुत्र ने क्रूरगोत्र वाले राजाओं के साथ मिल कर मेरे पिताजी को राजगद्दी से उतार दिया। तब से मेरे पिता ने बल-वाहन-सहित इस पल्ली में आश्रय लिया है । जैसे बैंत को मटपट सुका दिया जाता है, वैसे ही यहां रह कर मेरे पिताजी ने वन्य भीलों को झुका दिया है । उनके सहयोग से डाका डाल कर गांवों को उजाड़ते हुए वे अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं । सम्मत्ति मिलने के चार उपायों के समान इनके चार पुत्र हैं । चार पुत्रों के बाद इनके यहां एक अतिप्रिय पुत्री का जन्म हुआ ; वह मैं हूं।' यौवन की चौखट पर पैर रखते ही पिताजी ने मुझ से कहा-"बेटी ! सभी राजा मेरे शत्रु बने हुए हैं । अतः तुम यहीं रह कर अपने घर की तलाश करते रहना और तुम्हें जो वर पसंद हो, उसके लिए मुझे कह देना।" तब से ले कर अब तक मैं चकवी के समान सदा सरोवर के तट पर रह कर इस मार्ग से आते-जाते अनेक यात्रियों को देखती रहती थी। किये हुए मनोरथ की प्राप्ति तो स्वप्न में भी दुर्लभ होती है। मगर आर्यपुत्र ! मेरे भाग्य की प्रबलता से ही बाप यहाँ पधारे हैं। इसके बाद का हाल तो माप जानते ही हैं।"
एक दिन पल्लीपति राजा एक गांव को लूटने के लिए गया । उसने साथ कुमार भी गया । क्योंकि क्षत्रियों का यही क्रम होता है । जब गांव लूटा जा रहा था, तभी सरोवर के किनारे बरधनु