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तापस-आश्रम में निवास और पुष्पवती के साथ पाणिग्रहण शस्त्र-अस्त्रविद्याएँ उसी प्रकार पढ़ा दीं, जैसे बलदेव ने श्रीकृष्ण को पढ़ाई थीं। सारसपक्षियों के कलरव से परिपूर्ण एवं बन्धु-समान वर्षाकाल पूर्ण होने के बाद शरदऋतु के आते ही आश्रम के तापस फल तोड़ कर लाने के लिए निकटवर्ती वन में चले । कुलपति के द्वारा आदर-पूर्वक रोके जाने पर भी ब्रह्मपुत्र तापसों के साथ वन में उसी प्रकार चला जिस प्रकार हाथी अपने बच्चों के साथ चलता है। वन में इधर-उधर घूमते हुए ब्रह्मपुत्र ने एक जगह किसी हाथी का ताजा मल-मूत्र देखा । इस पर उसने सोचा'यहां से कुछ ही दूर कोई हाथी होना चाहिए ।' तापसों ने उसे आगे जाने से बहुत मना किया। फिर भी वह हाथी के पैरो के चिह्न देखता हुआ पांच योजन तक जा पहुंचा ; जहां उसने पर्वत के समान एक हाथी को देखा। तुरन्त ही लगोट कस कर कुमार ने गर्जना की। एक मल्ल जैसे दूसरे मल्ल को ललकारता है, वैसे ही मनुष्यों में हाथी के समान ब्रह्मदत्त ने हाथी को ललकारा। अतः लाल मुंह वाला हाथी कोपायमान हो कर सभी अगो को कपाता हुआ सूड लम्बी करके कान को स्थिर करता हुआ कुमार की ओर झपटा। हाथी ज्यों ही कुमार के पास आया, त्यों ही बालक को फुसलाने की तरह हाथी को बहकाने के लिए उसने बीच में ही एक वस्त्र फेंका। मानो आकाश से आकाशखण्ड टूट कर पड़ा हो, इस दृष्टि से अतिरोपवश हो कर हाथी ने उस वस्त्र को अपने दोनों दंतशूलों से क्षणभर में कस कर पकड़ लिया। जिस प्रकार मदारी सांप को नचाता है, उसी प्रकार कुमार ने विविध चेष्टाओं से हाथी को चारों ओर घुमाया। ठीक उसी समय ब्रह्मदत्त के दूसरे मित्र की तरह बादल गर्जने के साथ वर्षा अपनी जलधारा से हाथी पर आक्रमण करने लगी। अतः हाथी चिंघाड़ता हुआ मृगगति से भाग गया। कुमार भी पर्वत की ओर घूमता-घामता एक नदी के पास पहुंचा। उसने आपत्ति की तरह वह नदी पार की। नदी के किनार उसने एक पुराना उजड़ा हुआ नगर देखा। उसमें प्रवेश करते ही उसने बांसों के ढेर में पड़ी हई तलवार और ढाल को देखा; मानो उत्पातकारी केतु और सुरक्षाकारी चन्द्रमा हो। उन दोनों को शस्त्रचालनकौतुकी कुमार ने कुतुहलवश उठाए और सर्वप्रथम तलवार से उस बांस के बड़े ढेर को केले के पेड़ की तरह काट डाला। बांस के ढेर में उसे पृथ्वी में स्थलकमल के समान एक मानव-मस्तक दिखाई दिया, जिसके ओठ फड़फड़ा रहे थे। गौर से देखने पर उसे ज्ञात हुआ कि उलटा सिर किये किसी धूम्रपान करते हुए आदमी का ताजा कटा हुआ धड़ पड़ा है। यह वीभत्सदृश्य देखते ही वह पश्चात्तापयुक्त स्वर में बोल उठा-'अफसोस ! मैंने किसी निरपराध विद्यासाधक को मार डाला है, धिक्कार है मुझे !' यों आत्मनिंदा करते हुए कुमार ने ज्यों ही कदम आगे बढ़ाए, त्यों ही स्वर्ग से भूतल पर उतरे हुए नंदनवन के समान एक उद्यान देखा। उसमें प्रवेश करते हो सामने सातमजला महल देखा, मानो वह सात लोक की शोभा से मूच्छित हो कर यहां पड़ा हो । उस गगनचुम्बी महल में चढ़ते हुए कुमार को खेचरी-सी एक नारी दिखाई दी ; जो हथेली पर मुंह रखे चिन्तितमुद्रा में बैठी थी। कुमार ने बरा आगे बढ़ कर उत्सुकतापूर्वक स्पष्ट आवाज में उससे पूछा'भद्रे ! तुम यहां अकेली कैसे बैठी हो? तुम्हारी मुखमुद्रा से ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हे कोई गहरी चिन्ता है। अगर मुझे बताने में कोई हर्ज न हो तो. बताओ- 'तुम्हारी चिन्ता का क्या कारण है ?' उस भयविह्वल नारी ने गद्गदस्वर में उत्तर दिया-'भद्र ! मेरी रामकहानी बहुत लम्बी है ! परन्तु पहले यह बताइए कि आप कौन हैं ? जरा अपना परिचय दीजिए।' कुमार ने अपना परिचय देते हुए कहा-'मैं पांचालदेश के ब्रह्मराजा का पुत्र ब्रह्मदत्तकुमार हूं।' इतना सुनते ही वह हर्ष से उछल पड़ी और उसके नेत्रों से हर्षाश्रु टपक पड़े। उनसे कुमार के चरणों को पखारती हुई-सी वह नारी उसके चरणों में गिर पड़ी और रोती-गेती कहने लगी-'कुमार ! समुद्र में डूबते हए को नौका की तरह